संथाल विद्रोह
भारत में अंग्रेजों के खिलाफ सर्वप्रथम आवाज़ उठाने वाले लोगों में इस देश के धनाढ्य या शिक्षित वर्ग के लोग नहीं थे बल्कि इस देश के जंगलवासी अथवा आदिवासी समुदाय से संबंधित लोग थे। ऐसे ही एक आदिवासी विद्रोह ‘संथाल विद्रोह’ का इतिहास में बहुत महत्व है।
A symbolic picture of the Santhal rebellion-photo credit wikipedia |
कहाँ हुआ था संथाल विद्रोह
आदिवासियों के विद्रोहों में संथालों का विद्रोह सबसे जबरदस्त था। भागलपुर से राजमहल के बीच का क्षेत्र ‘दामन-ए-कोह’ के नाम से जाना जाता था। यह क्षेत्र संथाल जनजाति बहुल इलाका था। यहाँ हज़ारों संथालों ने संगठित विद्रोह किया था। संथाल विद्रोहियों ने गैर-आदिवासियों को भगाने, उनकी सत्ता समाप्त कर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए जोरदार संघर्ष छेड़ा।
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संथाल विद्रोह के क्या कारण थे
वे कौन-से सामाजिक-आर्थिक कारण थे, जिनके चलते संथाल विद्रोही बने। संथालों पर होने वाले अत्याचारों के विषय में कलकत्ता रिव्यू’ में एक बहुत ही सत्य लेख छपा था इसका वर्णन उस समय के एक लेखक ने किया है, जो इस प्रकार है :—
” अधिकांश जमींदार, पुलिस के लोग, राजस्व विभाग के कर्मचारी और अदालतों ने संथालों पर बेइंतहा जुल्म किये हैं। संथालों की जमीन-जायदाद हड़प ली। संथालों को विभिन्न तरीकों से अपमानित किया जाता है और उनके साथ मारपीट करना एक आम बात है। सूदखोर संथालों को कर्ज देकर उनसे मनमाफिक ब्याज ( कभी-कभी तो 50 से 500 फीसदी की दर ) वसूला जाता था।”
“धनाढ्य और ताकतवर लोग, जब मन में आता था, मेहनतकश संथालों के घर और फसल उजाड़ देते थे। उनकी खड़ी तैयार पकी फसलों पर हाथी दौड़ा दिए जाते थे। इस प्रकार की घटनाएं और अत्याचार आम बात हो गयी थी। दिकू ( गैर-आदिवासी ) और सरकारी कर्मचारी भी संथालों की निगाह में अत्याचारी थे। ये लोग संथालों से बेगार कराते थे। चोरी करना, झूठ बोलना और शराब पीना इनकी आदत सी बन गई थी।”
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संथाल विद्रोह का प्रारम्भ
1854 के आते-आते आदिवासी लोग अपने विरुद्ध होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए कसमसाने लगे थे।आदिवासियों के मुखिया मजलिस और परगणित बैठकें करने लगे और तैयारी शुरू हो गई खुले विद्रोह की।
जमींदारों और सूदखोरों को लूटने की छुटपुट घटनाएं शुरू हुईं।
“30 जून 1855 को भगनीडीह में में 400 आदिवासी गांवों के करीब छह हज़ार आदिवासी प्रतिनिधि इकट्ठे हुए और सभा की। सभी ने सहमति से निर्णय लिया कि बाहरी लोगों को भगाने, विदेशियों का राज हमेशा के लिए खत्म कर सतयुग का राज-न्याय और धर्म पर अपना राज-स्थापित करने के लिए खुला विद्रोह किया जाए।
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संथाल विद्रोह के नेता कौन थे
संथाल लोगों को विश्वास था कि भगवन उनके साथ है। विद्रोही संथालों के दो प्रमुख नेता थे —-सीदो और कान्हू थे। इन दोनों नेताओं ने घोषणा की कि ठाकुरजी ( भगवान ) ने उन्हें निर्देश दिया है कि आज़ादी के लिए अब हथियार उठा लो। सीदो ने अधिकारियों से कहा,
“ठाकुरजी ने मुझे आदेश देते समय कहा कि यह देश साहबों का नहीं है। ठाकुर जी स्वयं हमारी तरफ से लड़ेंगे। इस तरह आप साहब लोग और सिपाही लोग खुद ठाकुरजी से लड़ेंगे।
संथाल विद्रोहियों की कार्यवाही
इन आदिवासियों ने गांव में जुलूस निकले। ‘ढोल’ और नगाड़े बजाते ये पुरुषों, महिलाओं से संघर्ष करने का आह्वान करते। इन्होंने सभी को संघर्ष करने के लिए तैयार कर लिया। संथाल नेता हाथी, घोड़े और पालकी पर चलते थे। बहुत जल्दी इन्होंने करीब 60 हज़ार हथियारबंद संथालों को इकठ्ठा कर लिया। इसके आलावा कई हज़ार आदिवासियों को तैयार रहने के लिए कहा गया। उनसे कहा गया कि जब नगाड़ा बजे तो हथियार उठा लेना। विद्रोहियों माहजनों और जमींदारों पर हमला बोलना शुरू कर दिया। जमींदारों के मकानों आग लगा दी गई। पुलिस स्टेशन, रेलवे स्टेशन और डाक धोने वाली गाड़ियों को जला दिया गया। लगभग उन सभी चीजों पर हमला किया गया, जो दिकू ( गैर-आदिवासी ) और उपनिवेशवादी सत्ता के शोषण के माध्यम थे।
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अंग्रेज सरकार द्वारा संथाल विद्रोह का दमन / संथाल विद्रोह का दमन किसने किया था ?
संथालों के इस संगठित विद्रोह ने अंग्रेज सरकार को चकित कर दिया। औरनिवेशिक सरकार ने इस विद्रोह से निपटने के लिए सेना का सहारा लिया। विद्रोहियों का सफाया करने के लिए एक मेजर जनरल (जनरल लाइड ) के नेतृत्व में 10 टुकड़ियां भेजी गईं। विद्रोह प्रभावित इलाकों में मार्शल लॉ लागू किया गया और विद्रोही नेताओं को पकड़ने पर 10 हज़ार रुपए का इनाम घोषित किया गया।
संथाल विद्रोह का परिणाम
निरंकुश और शक्तिशाली सत्ता के अत्याचार और बल प्रयोग ने इस विद्रोह को कुचल दिया। अंग्रेज सरकार की कार्यवाही में 15 हज़ार से अधिक संथाल विद्रोही मारे गए। संथालों के गांव पूरी तरह उजाड़ दिए गए।
अगस्त 1955 में सीदो को गिरफ्तार कर लिया गया, सीदो को मार डाला गया। कान्हू फरवरी 1886 में पकड़ा गया। राजमहल की पहाड़ियां संथालों के खून से लाल हो गईं।
एल. एस. एस. ओ. मुले ने संथालों के विद्रोह को मुठभेड़ की संज्ञा दी है और उनकी बहादुरी का वर्णन कुछ इन शब्दों में किया है :—–
“संथालों ने अदम्य साहस दिखाया, असह्न्य यातना पर भी उफ़ तक नहीं की। एक बार एक झोपडी में 45 संथाल छिपे थे। सिपाही इन्हें घेरे हुए थे। सिपाही जब-जब गोली चलाते, ये संथाल तीर चलाते। जब उनके तीर निशाने से चूक गए तो सिपाही झोपडी में घुसे। झोपडी में केवल एक बूढ़ा संथाल ज़िंदा था। एक सिपाही ने जब उससे आत्मसमर्पण करने को कहा तो वह बूढ़ा संथाल सिपाही पर हमले के लिए झपट पड़ा और अपनी कुल्हाड़ी से सिपाही के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
इस प्रकार संथाल विद्रोह भले ही औपनिवेशिक सरकार ने दबा दिया हो मगर उसकी धमक आने वाले कई वर्षों तक सुनाई देती रही। इन आदिवासियों के संघर्ष ने ही आगे चलकर क्रांतिकारी आंदोलन को जन्म दिया।
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