चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय की उपलब्धियां तथा इतिहास

Share This Post With Friends

पुलकेशिन II, जिसे इम्मादी पुलकेशिन के नाम से भी जाना जाता है, चालुक्य वंश का एक प्रमुख शासक था जो 7वीं शताब्दी के दौरान भारत के दक्कन क्षेत्र में फला-फूला। वह 609 CE में सिंहासन पर चढ़ा और 642 CE तक तीन दशकों तक शासन किया। पुलकेशिन II अपने सैन्य कौशल, कूटनीतिक कौशल और प्रशासनिक कौशल के लिए जाने जाते थे। दक्षिण भारतीय राजनीति में चालुक्य शासकों का अपना एक विशेष महत्व है। इस वंश का सबसे प्रतापी शासक पुलकेशिन द्वितीय  था। इस ब्लॉग में हम ‘चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय की उपलब्धियां तथा इतिहास’ के बारे में जानेंगे। 


चालुक्य शासक पुलकेशिन-चालुक्य वंश का प्रारम्भिक इतिहास 

दक्षिणापथ पर छठी शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी तक शासन करने वाले चालुक्य वंश का इतिहास बहुत ही गौरवशाली रहा है। उनका उत्कर्ष जिस स्थान से हुआ ( बादामी या वातापी ) उसी नाम से उन्हें पुकारा गया यानि बादामी या वातापी  चालुक्य। यह स्थल  वर्तमान में कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में स्थित बादामी ( वातापी ) है। हर्षवर्धन और दक्षिण के पल्ल्वों के विरोध के बावजूद चालुक्यों ने दो शताब्दी तक अपना शासन चलाया।

बादामी के चालुक्य वंश का संस्थापक 

बादामी के चालुक्य वंश का संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था। पुलकेशिन प्रथम ने वातापी में एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण कराया और उसे अपनी राजधानी बनाया। ऐहोल अभिलेख में उसकी विजयों और अश्वमेध यज्ञ करने का वर्णन है। पुलकेशिन प्रथम ने सत्याश्रय तथा रणविक्रम जैसी उपाधियाँ धारण की। पुलकेशिन प्रथम का विवाह बटपुर परिवार की कन्या दुर्लभदेवी से हुआ। पुलकेशिन प्रथम ने 535 ईस्वी से 566 ईस्वी  तक शासन किया। 

पुलकेशिन द्वितीय का इतिहास 

नाम पुलकेशिन द्वितीय
अन्य नाम इम्मादी पुलकेशिन, विष्णुवर्धन पुलकेशिन
पिता का नाम कीर्तिवर्मन प्रथम
पूर्ववर्ती मंगलेश
उत्तरवर्ती आदित्यवर्मन
शासनकाल 609-642 ईस्वी
वंश वातापी चालुक्य वंश
मुख्य उपलब्धि हर्ष वर्धन पर विजय
धर्म वैष्णव

पुलकेशिन द्वितीय का प्रारंभिक जीवन

पुलकेशिन II, जिसे विष्णुवर्धन पुलकेशिन के नाम से भी जाना जाता है, दक्षिण भारत में चालुक्य वंश का एक प्रमुख शासक था जिसने 610 से 642 CE तक शासन किया था। पुलकेशिन द्वितीय के प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है क्योंकि उस समय के ऐतिहासिक अभिलेख दुर्लभ हैं। हालाँकि, उपलब्ध जानकारी के आधार पर, यहाँ हम उनके प्रारंभिक जीवन के बारे में जान सकते हैं:

पारिवारिक पृष्ठभूमि: पुलकेशिन II का जन्म चालुक्य वंश में हुआ था, जो प्राचीन और मध्यकालीन दक्षिण भारत के सबसे शक्तिशाली राजवंशों में से एक था। चालुक्य कला, साहित्य और वास्तुकला के संरक्षण के लिए जाने जाते थे, और दक्कन क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर शासन करते थे।

शिक्षा और प्रशिक्षण: शाही परिवार के एक सदस्य के रूप में, पुलकेशिन II को भविष्य के राजा के लिए एक व्यापक शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त हुआ था। उन्हें एक शासक के रूप में अपनी भूमिका के लिए तैयार करने के लिए प्रशासन, युद्ध, कूटनीति और शासन कला जैसे विभिन्न विषयों में प्रशिक्षित किया गया होगा।

उत्तराधिकार: पुलकेशिन द्वितीय अपने पिता, राजा कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु के बाद चालुक्य वंश के सिंहासन पर बैठा। उसे राज्य और जिम्मेदारियाँ विरासत में मिलीं, जो कम उम्र में उसके साथ आईं, और स्थापित करने के लिए शासन की कला को जल्दी से सीखना पड़ा।

हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात कन्नौज के लिए त्रिकोणआत्मक संघर्ष

प्रारंभिक शासनकाल: पुलकेशिन II को अपने शासनकाल के आरंभ में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसमें आंतरिक शक्ति संघर्ष और पड़ोसी राज्यों से बाहरी खतरे शामिल थे। हालाँकि, वह एक कुशल और सक्षम शासक साबित हुआ, जो अपने सैन्य कौशल और प्रशासनिक क्षमताओं के लिए जाना जाता था। उसने सफल सैन्य अभियानों और राजनयिक गठबंधनों के माध्यम से राज्य के क्षेत्र का विस्तार किया और अपने राज्य के प्रशासन और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए विभिन्न सुधारों को लागू किया।

धार्मिक संरक्षण: पुलकेशिन II जैन धर्म के संरक्षण के लिए जाना जाता था, और उसने अपने शासनकाल के दौरान कई जैन मंदिरों के निर्माण और जैन धर्म के प्रचार का समर्थन किया। उन्हें जैन धार्मिक संस्थानों को भूमि और अन्य विशेषाधिकार प्रदान करने के लिए भी जाना जाता था।

पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य शासकों में सबसे शक्तिशाली और महान शासक सिद्ध हुआ। पुलकेशिन द्वितीय ने अपने चाचा ( मंगलेश ) की हत्या कर गद्दी प्राप्त की और 609-10 ईस्वी में शासन पर कब्जा कर लिया। 

 ऐहोल अभिलेख में संदर्भित है कि “जब पुलकेशिन द्वितीय ने मंगलेश (अपने चाचा ) के शासन का अंत किया, तब संसार अरिकुल (शत्रुसमूह ) के अंधकार से ढँक गया।”

इस प्रकार कहा जा सकता है कि पुलकेशिन द्वितीय जब सिंहासन पर बैठा तब राज्य में अराजकता से घिरा था।  अनेक सामंतों ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी थी। 

पुलकेशिन द्वितीय के सामने उस समय दो चुनौतियाँ थीं —

१- राज्य की बहरी आक्रमणों से रक्षा करना। 

२- स्वतन्त्रता घोषित कर चुके सामंतों को पुनः नियंत्रण में लाना। 

पुलकेशिन द्वितीय की उपलब्धियां –

१- कदम्ब राज्य पर विजय –ऐहोल लेख से ज्ञात होता है कि पुलकेशिन द्वितीय ने सर्वप्रथम कदम्बों पर आक्रमण क्र बनवासी नगर को ध्वस्त किया। बनवासी एक वैभवशाली नगर था जिसकी तुलना इंद्रपुरी से की गयी है। पुलकेशिन ने कदम्बों को हराकर उसे अपने राज्य में शामिल कर लिया।  इस क्षेत्र की बागडोर उसने अपने सामंतों- आलूपों तथा सेन्द्रकों के हाथ में सौंप दिया। 

२- आलुप तथा गंग पर विजय  — ऐहोल लेख में वर्णित है कि ‘उसने आलुपों तथा गंगों को अपनी आसन्न सेवा का अमृतपान कराया।

  • आलुप दक्षिणी कन्नड़ जिले में शासन करते थे। पराजित आलुप शासक ( सामंत ) कुंदवर्मरस’ था।
  • गंगों से तात्पर्य पश्चिमी गंगों से है जिनका रज्य ‘गंगवाडि’ नाम से जाना जाता था। गंग नरेश ‘दुर्वीनीत’ ने अधीनता स्वीकार कर अपनी पुत्री का विवाह पुलकेशिन से कर दिया। 

३- कोंकण प्रदेश की विजय –अपने विजय अभियान के अगले क्रम में पुलकेशिन ने कोंकण प्रदेश पर आक्रमण किया। 

 “कोंकण में उस समय मौर्यों का अधिपत्य था, वे वे पुलकेशिन  ठहर नहीं पाए और उन्होंने आसानी अधीनता स्वीकार कर ली। इसके पश्चात् पुलकेशिन ने कोंकण की राजधानी – पुरी ( धारापुरी ), जिसे ‘ पर नौकाओं द्वारा आक्रमण किया।

      ” पुरी ( धारापुरी ), जिसे

 ‘पश्चिमी समुद्र की लक्ष्मी’ कहा गया है।”

पुरी की पहचान बम्बई के समीप एलिफेंटा द्वीप पर स्थित ‘धारापुरी’ से की गयी है। यह एक प्रसिद्ध बंदरगाह था। 

४- लाट, मालव तथा गुर्जर प्रदेश — लाट राज्य दक्षिणी गुजरात में स्थित था।  इसकी राजधानी नवसारिका ( बड़ौदा स्थित नौसारी ) में थी। यहां भी पुलकेशिन ने विजय प्राप्त की। 

मुसलमानों के आक्रमण के समय उत्तर भारत के प्रमुख राज्य, मध्यकालीन भारत

  • गुर्जर सम्भवतः  इनका राज्य किम तथा माही नदियों के मध्य था। 
  • मालवा की विजय को इतिहासकार संदिग्ध मानते हैं। 

५- हर्षवर्धन से युद्ध 

जिस समय दक्षिणापथ में पुलकेशिन द्वितीय अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था, उसी समय उत्तरी भारत में हर्षवर्धन अनेक राजाओं को पराजित कर अपनी अधीनता  में ला रहा था। हर्ष के इन विजय अभियानों ने उसके राज्य की सीमा पश्चिम में नर्मदा नदी तक पहुंचा दी। ऐसी स्थति में हर्ष और पुलकेशिन के मध्य युद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया। 

हर्षवर्धन ( कन्नौज  के शासक ) और पुलकेशिन द्वितीय के मध्य नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ जिसमें हर्ष की पराजय हुई।

हुएनसांग ने भी इस युद्ध का वर्णन करते हुए पुलकेशिन की वीरता की प्रशंसा की है —

  “राजा शीलादित्य ( हर्ष ) अपने सेनानायकों  के साथ स्वयं सेना की अचूक सफलता तथा अपने कौशल पर गर्व करते हुए आत्मविश्वास के साथ स्वयं सेना का नेतृत्व सम्भालते हुए इस राजा से लड़ने के लिए गया।  किन्तु वह उसे पराजित अथवा अधीन करने में असफल रहा, यद्यपि उसने पंचभारत से सेना तथा सभी देशों के सर्वश्रेष्ठ सेनानायकों को एकत्रित किया था।”

“ऐहोल अभिलेख रविकीर्ति द्वारा लिखा गया”

हर्ष की पराजय को कुछ विद्वान स्वीकार नहीं करते। कुछ समय के पश्चात् हर्ष ने 643 ईस्वी में कोगोन्द पर आक्रमण कर पुलकेशिन द्वितीय के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर पुराणी पराजय का बदला लिया। 

६- त्रिमहाराष्ट्रको पर अधिकार — ऐहोल अभिलेख के अनुसार उसने ‘त्रिमहारष्ट्रको’ पर अधिकार लिया। इसमें ९९००० ग्राम थे। ये ग्राम नर्मदा तथा ताप्ती नदियों के बीच के भूभाग में फैले हुए थे। 

७- पूर्वी दकन की विजय — उपरोक्त विजयों के बाद पुलकेशिन द्वितीय ने अपने भाई विष्णुवर्धन को ‘युवराज’ बनाया तथा उसके कन्धों पर अपनी राजधानी की जिम्मेदारी का भार सौंप कर वह पूर्वी दक्खिन की विजय के लिए चल पड़ा। 

इस विजय क्रम में सर्वप्रथम कोशल तथा कलिंग ने उसकी अधीनता स्वीकार की। कलिंग पर पांड्यवंश का शासक बालार्जुन शिवगुप्त था। कलिंग पर उस समय गंगवंशी शाखा का शासन था। 

इस विजय के  बाद पुलकेशिन ने आंध्रप्रदेश में स्थित पिष्टपुर पर आक्रमण किया। यहाँ विष्णुकुंडीन वंश का शासन था। भयंकर युद्ध के बाद पुलकेशिन ने इस राज्य पर अधिकार कर लिया। 

इसके बाद पुलकेशिन ने काञ्ची के पल्ल्वों के साथ उसका संघर्ष हुआ। 

चालुक्य-पल्ल्व संघर्ष 

आंध्र के दक्षिण में पल्ल्वों का शक्तिशाली राज्य था। इस समय पल्लव वंश का महेन्द्रवर्मन प्रथम ( 600-630ईस्वी ) शासन कर रहा था। महेन्द्रवर्मन और पुलकेशिन द्वितीय के बीच भयंकर युद्ध हुआ। महेन्द्रवर्मन अपनी राजधानी काञ्ची को बचाने में सफल रहा। लेकिन उसके उत्तरी प्रांतों पर पुलकेशिन द्वितीय का अधिकार हो गया। 

पल्ल्वों पर विजय प्राप्त कर पुलकेशिन वापस अपनी राजधानी लौट आया। राजधानी आकर उसने अपने भाई विष्णुवर्धन को आंध्र प्रदेश का वायसराय बनाकर शासन करने के लिए भेजा। वहां उसने पूर्वी चालुक्य वंश के शाखा की स्थापना की जिसने आंध्र देश पर 1070 ईस्वी तक शासन किया। 

पल्ल्वों के साथ दूसरा संघर्ष पुलकेशिन द्वितीय ने काञ्ची पर आक्रमण के साथ शुरू हुआ। इस समय पल्ल्व शासक नरसिंह वर्मन 630-668 ( महेन्द्रवर्मन के पुत्र ) का शासन था। नरसिंहवर्मन एक शक्तिशाली शासक था और कई बार उसने पुलकेशिन को हराया। अपनी पराजय के पश्चात् पुलकेशिन राजधानी लौट आया। नरसिंहवर्मन ने अपनी विजय से उत्साहित  होकर चालुक्यों की राजधानी वातापी पर आक्रमण किया और इस युद्ध में लड़ते हुए पुलकेशिन द्वितीय मारा गया।

इस प्रकार पुलकेशिन द्वितीय जो एक महान शासक था और उसका अंत दुखद रूप में हुआ। उसने 610-11 से 642 ईस्वी तक शासन किया।

चोल साम्राज्य (प्रशासन, धर्म, समाज, वाणिज्य, कला, वास्तुकला और साहित्य )

संछिप्त रूप में पुलकेशिन II की उपलब्धियां

पुलकेशिन II 7वीं शताब्दी के दौरान भारत में चालुक्य वंश का एक प्रमुख शासक था। उन्होंने अपने शासनकाल के दौरान कई उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल कीं, जो 610 सीई से 642 सीई तक चलीं। पुलकेशिन II की कुछ प्रमुख उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं:

सफल सैन्य अभियान: पुलकेशिन II अपने सैन्य कौशल के लिए जाना जाता था और उसने विभिन्न पड़ोसी राज्यों के खिलाफ सफल सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया। उसने बनवासी के कदंबों, कोंकण के मौर्यों और तलकाडू के गंगा सहित कई क्षेत्रों को मिलाकर चालुक्य साम्राज्य के क्षेत्र का विस्तार किया, जिससे उसके साम्राज्य को मजबूत किया और इसे दक्षिण भारत में सबसे शक्तिशाली बना दिया।

हर्ष पर विजय: नर्मदा नदी के तट पर हुए भीषण युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय ने हर्ष वंश के सम्राट हर्ष को पराजित किया। इस जीत ने उत्तरी भारत में चालुक्य साम्राज्य को एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया और एक दुर्जेय शासक के रूप में पुलकेशिन II की प्रतिष्ठा को बढ़ाया।

कला और स्थापत्य कला का संरक्षण -पुलकेशिन द्वितीय कला और स्थापत्य का एक महान संरक्षक था। उन्होंने पट्टदकल में प्रसिद्ध विरुपाक्ष मंदिर सहित कई प्रभावशाली मंदिरों के निर्माण का काम शुरू किया, जो यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल है और चालुक्य वास्तुकला का एक अनुकरणीय उदाहरण है।

प्रशासनिक सुधार: पुलकेशिन II अपने प्रशासनिक सुधारों के लिए जाना जाता था, जिससे उसके साम्राज्य के शासन को मजबूत करने में मदद मिली। उन्होंने एक सुव्यवस्थित प्रशासनिक प्रणाली की स्थापना की, अपने साम्राज्य को राष्ट्र नामक प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित किया, और प्रभावी शासन सुनिश्चित करने के लिए कुशल राज्यपालों की नियुक्ति की।

व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा – पुलकेशिन द्वितीय ने अपने शासनकाल में व्यापार और वाणिज्य को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया। उन्होंने सिंचाई नहरों के निर्माण को प्रोत्साहित किया, सड़क के बुनियादी ढांचे में सुधार किया, और व्यापार संघों का समर्थन किया, जिसने आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया और अपने साम्राज्य की समृद्धि में योगदान दिया।

धर्म और संस्कृति का प्रचार- पुलकेशिन द्वितीय विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं के प्रति अपनी सहिष्णुता के लिए जाना जाता था। उन्होंने शैववाद, वैष्णववाद और जैन धर्म जैसे विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के विकास को प्रोत्साहित किया और मंदिरों, मठों और शैक्षणिक संस्थानों के निर्माण का समर्थन किया, जिससे धार्मिक सद्भाव और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा मिला।

राजनयिक संबंध: पुलकेशिन द्वितीय ने अपने साम्राज्य को मजबूत करने के लिए पड़ोसी राज्यों के साथ राजनयिक संबंध बनाए रखे और क्षेत्रीय शक्तियों के साथ गठबंधन स्थापित किया। उन्होंने पल्लवों, चोलों और राष्ट्रकूटों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे, और चीन और फारस जैसी विदेशी शक्तियों के साथ व्यापारिक संपर्क भी बनाए रखा।

राष्ट्रकूट राजवंश, साम्राज्य, शासक, प्रशासन और सेना, धर्म, समाज , वाणिज्य, कला और वास्तुकला

पुलकेशिन II के उत्तराधिकारी

पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के बाद, चालुक्य वंश को उथल-पुथल और उत्तराधिकार विवादों के दौर का सामना करना पड़ा। पुलकेशिन II के बाद कई शासक आए, और राजवंश उत्थान और पतन के विभिन्न चरणों से गुजरा। पुलकेशिन II के कुछ उल्लेखनीय उत्तराधिकारी इस प्रकार हैं:

विक्रमादित्य I ( 655-680 ईस्वी): विक्रमादित्य I पुलकेशिन II का पुत्र था और अपने पिता की मृत्यु के बाद सिंहासन पर चढ़ा। उन्हें अक्सर अस्थिरता की अवधि के बाद चालुक्य वंश को पुनर्जीवित करने का श्रेय दिया जाता है। विक्रमादित्य प्रथम ने अपने पिता की विस्तारवादी नीतियों को जारी रखा और वर्तमान कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों को शामिल करने के लिए चालुक्य साम्राज्य का विस्तार किया। उन्हें कला और वास्तुकला के संरक्षण के लिए भी जाना जाता था, और उनके शासनकाल के दौरान कई उल्लेखनीय मंदिरों का निर्माण किया गया था।

विनादित्य (680-696 ईस्वी): विनादित्य विक्रमादित्य प्रथम के पुत्र थे और अपने पिता को सिंहासन पर बैठाया। हालाँकि, उनके शासनकाल को आंतरिक संघर्षों और बाहरी आक्रमणों द्वारा चिह्नित किया गया था, जिसमें पल्लवों और राष्ट्रकूटों के हमले शामिल थे। उन्होंने साम्राज्य की क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखने के लिए संघर्ष किया और अपने शासन के दौरान कई चुनौतियों का सामना किया।

विजयादित्य (696-733 ईस्वी): विजयादित्य विनादित्य के पुत्र थे और सापेक्ष स्थिरता की अवधि के दौरान चालुक्य राजा के रूप में शासन किया। उन्हें साम्राज्य को मजबूत करने और इसके पूर्व गौरव को बहाल करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। उसने पल्लवों और राष्ट्रकूटों के आक्रमणों को सफलतापूर्वक रद्द कर दिया और चालुक्य क्षेत्र का विस्तार करने के लिए कई सैन्य अभियान चलाए।

विक्रमादित्य II (r. 733-746 CE): विक्रमादित्य II, जिन्हें “जयसिम्हा” के नाम से भी जाना जाता है, विजयादित्य के पुत्र थे और चालुक्य वंश के सबसे प्रमुख शासकों में से एक थे। वह अपने सैन्य अभियानों और क्षेत्रीय विस्तार के लिए जाना जाता है, जिसने कई क्षेत्रों को चालुक्य शासन के अधीन कर दिया। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने शासनकाल में कला, साहित्य और धर्म का संरक्षण किया।

कीर्तिवर्मन II (746-753 CE): कीर्तिवर्मन II विक्रमादित्य II का पुत्र था और उसने अपने पिता को चालुक्य राजा के रूप में उत्तराधिकारी बनाया। हालाँकि, उनके शासनकाल को आंतरिक संघर्षों, स्थानीय प्रमुखों द्वारा विद्रोह और बाहरी शक्तियों के हमलों द्वारा चिह्नित किया गया था। उसे साम्राज्य की स्थिरता को बनाए रखने और प्रभावी ढंग से शासन करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ा।https://studyguru.org.in, http://www.histortstudy.in


Share This Post With Friends

Leave a Comment

Discover more from 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading