ऋग्वैदिक आर्यों के वस्त्र एवं वेष-भूषा

ऋग्वैदिक आर्यों के वस्त्र एवं वेष-भूषा

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Last updated on April 21st, 2023 at 07:54 pm

हड़प्पा सभ्यता के पतन के पश्चात् भारत में आर्यों का आना एक नई सभ्यता और संस्कृति का आगमन था। आर्य ठन्डे प्रदेश से आये थे। जाड़ों में सप्तसिन्धु (पंजाब) में भी काफी ठण्ड पड़ती थी। सुवास्तु-उपत्य का जैसे स्थानों में जिन्हें रहना पड़ता था, वहां हर वर्ष वर्फ पड़ती देखते थे। पर, आर्यों के अधिकांश निवास सर्द होते भी हिमपात की भूमि से भिन्न थे। सर्दी से बचने के लिए शरीर का ढंकना आवश्यक था। “अग्निर्हिमस्य भेषजम” ( आग सर्दी की दवा है ) की उक्ति चरितार्थ करते हुए वह कपड़े बिना सिर्फ आग के सहारे नहीं रह सकते थे। वह कई प्रकार के वस्त्र पहनते थे, पर  विवरण प्राप्त नहीं होता। 

ऋग्वैदिक आर्यों के वस्त्र एवं वेष-भूषा 

ऋग्वैदिक आर्यों के वस्त्र

 १- आर्यों के वस्त्र 

 वस्त्र को वास कहा जाता था। 

सुवास, दुर्वास, अर्जुनवास, शुक्रवास, अविवास जैसे शब्द वस्त्रों के प्रकार थे। 

स्त्री या पुरुष के लिए सुवास होना आवश्यक था।  इस संबंध में विश्वामित्र ने ( ३| ८| ४ ) कहा है –

                     “सु-वास, आच्छादित युवा आया, वह उतपन्न हो श्रेयकर है। 

                      धीर मन से सुन्दर सोचते देवों  का उन्नयन करते हैं।”

  यहाँ यज्ञ के यूप ( स्तम्भ ) का वर्णन करते, उसकी उपमा सुन्दर वस्त्र पहने तरुण से दी गयी है। 

  इसी प्रकार ऋषि कक्षीवान ने सुवासा स्त्री का उल्लेख ( १| १२४| ७ ) किया है —-

“जैसे भ्रातृहीन ( पति-के ) बिना स्त्री पुरुष के सामने धन की प्रप्ति के लिए घर आती है, जैसे सुवासा ( पत्नी ) अभिलाषा करती पति के पास आती है, वैसे ही हंसती हुई उषा प्रकाशित होती है।”

    इसी भाव को वृहस्पति भी कहते हैं  ( १०| ७१| ४ )—–

  “कोई देखते भी वाणी  नहीं देखते, सुनते  भी इसे नहीं सुनते। किसी को यह वाणी पति की कामिनी सुवासा जाया की तरह अपना शरीर अनावृत करती है।”

 शुक्ल वस्त्र  के साथ, जान पड़ता है, अधिक प्रेम था।  कुत्स आंगिरस ने उषा का वर्णन करते कहा ( १| ११३| ७ )—

“यह द्यौ की पुत्री, युवती, शुक्ल वस्त्र वाली (शुक्रवासा ) अंधकार दूर करती ( उषा ) दिखलाई पड़ी। यह सारे पृथ्वी लोक के धन की स्वामिनी है।  हे सुभगे उषा, आज यहाँ से अंधकार दूर करो।”


उषा को अरुणवासा  कहना चाहिए, लेकिन शुक्लवस्त्र के पक्षपात से यहां उसे शुक्रवासा कहा गया। विश्वामित्र ने भी उषा को अर्जुन ( सफेद ) वस्त्रधारिणीं बतलाया है ( ३| ३९| २ )—-
द्युलोक में उत्पन्न, यज्ञ में प्रशंसित, जागरूक, अर्जुन ( सफेद ) वस्त्रों को पहने भद्रा उषा पितरों के पास से हमारे यहाँ आती है।

आर्यों के वस्त्र ऊनी होते थे यही कारण है की सभी जगह अवि ( भेड़ ) और ऊर्णा का ही उल्लेख मिलता है, यहाँ तक कि सोम को छानने के लिए भी ऊनी कपडे का ही प्रयोग होता था। विमद ऋषि कहते हैं ( १०| २६| ६ )—

“आकांक्षिणी, शुचा और शुच ( उषा- ) पति भेड़ों के वस्त्र को बुनते हैं, वस्त्रों को धोते हैं।”
बुरे वस्त्रों वाला ( दुर्वास ) रहना आर्य पसंद नहीं करते थे इसीलिए वशिष्ठ ने अग्नि से ( ७| १| १९ ) कामना की है —-

 “हे अग्नि, हमें अ-वीर न करना, दुर्वासा और मतिहीन न करना। हमें क्षुधा देना, न राक्षसों को देना।  हमें न-घर में न वन में मारना।”


स्त्रियों का वस्त्र से सु-आच्छादित रहना अच्छा समझा जाता था। विश्वमना आंगिरस कहते हैं ( ८| २६| १३ )—-

     “हे अश्विद्य, सेवा करने पर वस्त्र से आच्छादित वधु की तरह यज्ञ द्वारा सेवित हो तुम मंगल करते हो।”

वस्त्रों का अधिक व्यवहार होने पर भी कितने प्रकार थे इसका पता काम लगता है। उनके परिधान थे —-

ऋग्वैदिक देवता इंद्र

१- द्रापि— वामदेव ने इस वस्त्र का उल्लेख ( ४| ५३| २ ) किया है —-

 “द्यौलोक के धारक, भुवन के प्रजापति कवि ( सविता ) पिशंग ( पिली ) द्रापि धारण करते हैं। वह प्रार्थिर्त तर्पित हो विचक्षण सविता सुन्दर धन प्रदान करें।”


दीर्घतमा-संतान कक्षीवान भी द्रापि का वर्णन करते है ( १| ११६| १० )—–

  “हे अश्वी कुमारो, द्रापि की तरह तुमने च्यवन के बुढ़ापे को खोल फेंका है दर्शनीयो, तुमने उस परित्यक्त के जीवन को बढ़ाया, और ( उसे ) कन्याओं का पति बनाया।”

 अजीगर्त-पुत्र शुनःशेप वरुण की प्रशंसा करते हैं ( १| २५ | १३ )—-

     “सुनहली द्रापि को धारण करते वरुण ( अपना ) पुष्ट शरीर ढांकते  हैं। चरों ओर किरणें फैलती हैं।”

 वैदिककालीन भाषा और काव्य 

इन ऋचाओं से मालूम होता है, की पिशंग, हिरण्य अर्थात ( पीली ) सुनहली द्रापि पहनी जाती थी। शायद हिमालय के बहुत से स्थान की स्त्रियों के दोडू ( चादर ) की तरह इसे पहिना जाता था।

२- अत्क — भरद्वाज ने इसका उल्लेख किया है ( ६| २९| ३ )—-

      “इंद्र, श्री के लिए तेरे पैरों की हम सेवा करते हैं। वज्र-युक्त तुम शत्रुओं को बल से पराजित करते हमें दक्षिणा देते हो। हे नेता, दर्शनीय सुरभि अत्क को पहने तुम सूर्य की तरह भ्रमण करते हो।”

कल्पित वेन भार्गव ऋषि वेन नामक देवता का वर्णन करते कहते हैं ( १०| १२३| ७ ) —–

        “गन्धर्व स्वर्ग में ऊँचे स्थित, सामने विचित्र आयुधधारी, सुरभि अत्क पहने दर्शनीय ( वेन ) प्रिय सुख उत्पन्न करते हैं।” 

3- यह शिरस्त्राण और  उष्णीष (पगड़ी)  दोनों का नाम था। वशिष्ठ ने इंद्र के लिए कहा है- ( 7 | 35 | 3 )— 

       “हे शिप्रवाले ( इंद्र ) सुदास के लिए तेरी सैकड़ों रक्षाएं , सहस्रों अभिलाषाएं और दान हों। इन सब मर्दों के हथियारों को नष्ट करो, और ( हमें ) उज्ज्वल  रत्न दो।”

 वामदेव के कथन से  (4 | 37 | 4 ) मालूम होता है, कि शिप्र शिरस्त्राण था— 

“हे ऋभुओ, तुम्हारे अश्व  मोटे हैं, रथ चमकते हैं,  तुम ताम्र-शिप्रा ( अयः शिप्रः ), अनन्वान और अच्छे निष्क (सुवर्ण ) वाले हो। हे इंद्र के पुत्रो, बल के नातियो, तुम्हारे आनंद के लिए यह अग्रणी सेवन किया जा रहा है।”

 ऋग्वैदिक राजा सुदास 

शिप्र से यहां तांबे  के सिरस्त्राण  का पता लगता है। पर शिरस्त्राण  भी उष्णीष ( पगड़ी ) का ही एक विकसित रूप है।  इस प्रकार आर्यों की पोशाक में उष्णीष  भी थी।  प्रायः  ईसवी सन के आरंभ तक भारत में स्त्री-पुरुष दोनों उष्णीष ( पगड़ी ) बांधते रहे। उस समय भारत से जो लोग बाहर के उपनिवेशों  में जाकर बसे, वहां भी नर-नारी दोनों के साथ उष्णीष गई। बर्मा की सीमांत पर चीन में–जहां पुराने समय में पूर्व-गंधा उपनिवेश आवाद था–आज भी स्त्री-पुरुष पगड़ी बांधते हैं।

द्रापि का  ही रूपांतरण पीछे का उत्तरासंग ( चादर ) है। सुवास या अच्छे अंतरवासक ने पीछे धोती का रूप ले लिया। स्त्रियों में उसी ने उत्तरीय या उत्तरा-संग से जुड़कर साड़ी का रूप लिया, या घेरे को बढ़ा देने पर लहंगा बन गया। मोहनजोदड़ो और हड्डा की पोशाक में भी अंतर्वास और उत्तर-संग का पता लगता है। सुत्थन या पायजामा शकों की पोशाक थी, जो उन्हीं के साथ ईसा-पूर्व और पश्चात् प्रथम शताब्दी में भारत में प्रवेश कर गया, यह अपने सिक्कों पर सुत्थन पहने गुप्त राजाओं को देखने से मालूम होता है। 

 उत्तर वैदिककालीन संस्कृति की विशेषताएं 

२- आर्यों की भूषा 

आभूषणों में कुंडल ( कर्णशोभन ), गले की ताबीज या हमेल, छाती का हार तथा हाथ में कंकण ( खादि ) का पता लगता है।  यह जेवर सोने और मणि के होते थे।  वैदिक काल में चांदी का यदि आभाव नहीं, तो चलन जरूर कम था। पुराने समय में चांदी की दुर्लभता के कारण चांदी और सोने का भाव बराबर देखा जाता है, यह भी उसके प्रचार में बाधक था। सोना हमारे यहाँ थोड़ा बहुत होता था, और उससे भी अधिक सोना अल्ताई की खानें ताम्रयुग एशिया के भिन्न-भिन्न देशों को प्रदान करती थीं, जो बीच की जातियों से होता भारत पहुंचा। 

१- कर्ण-आभूषण — कुरुसुति ऋषि कर्णशोभन ( कर्णाभरण ) का उल्लेख करते हैं  ( ८ | ६७ | ३ ) —

     “हे शत्रुनाशक इंद्र तुम वसु, तुम प्रशंसनीय सुने जाते हो। हमे बहुत से कर्णशोभन प्रदान करो।”

       कक्षीवान ( १| १२२| १४ ) विश्वे ( सारे ) देवों से प्रार्थना करे हैं —

 “हे विश्वेदेवों, हमें हिरण्यकर्ण ( सुवर्ण-कुंडली  ) , मणिग्रीव ( मणि-कंठावाला ), रूपवान, पुत्र प्रदान करो। सद्यः निकलती हमारी श्रेष्ठ वाणी और हव्य को पसंद करो।”

२- सोने का कंठा — गले में निष्क ( सोने ) पहनने का उल्लेख है।  निष्क सोने की मुद्रा नहीं था।  कुषाणों से पहले सोने की मुद्रा भारत में किसी राजा नहीं ढाली न उसका नमूना कोई मिलता है। हो सकता है, गले में पहनने के लिए विशेष आकार के सोने के टुकड़े बनते हों, जिन्हें निष्क कहा जाता था।  अत्रि-गोत्रीय वब्र ऋषि गले में निष्क पहने हुए ऋत्वजों का उल्लेख करते हैं ( ५| १९| ३ ) —

    “स्तुतिकर्ता अन्नाकांक्षी, निष्ग्रीव ऋत्विज इस अग्नि के बलों को बढ़ाते हैं”

निष्कग्रीव ही के लिए वशिष्ठ ने सुनिष्क कहा है ( ७| ५६| ११ ) —

            “वे सुन्दर आयुधवाले गतिशील सुनिष्कमरुत स्वयं शरीर को सजाते”

 कक्षीवान ने विश्वेदेवों को ( १| १२२| १४ ) मणिग्रीव बतलाया है, जिससे पता लगता है, की आर्य पुरुष-स्त्री गले में निष्क ही नहीं, मणियों की भी माला पहनते थे। 

वर्णव्यवस्था का इतिहास

३- रुक्मवक्ष — वशिष्ठ ने ( ७| ५६| १३ ) छाती पर रुक्म और कंधे पर खादि के धारण करने का उल्लेख किया है —-

 “हे मरुतो, तुम्हारे कन्धों पर खादि और वक्ष पर रुक्म ( स्वर्णाभरण ) पड़ा हुआ है। जैसे वृष्टि के समय बिजली चमकती है वैसे ही जल देते हुए तुम अपने आयुधों से शोभित होते हो।”

४-खादि, ५-ऋष्टि, ६-शिप्र — ऊपर की ऋचा से पता लगता है, कि खादि कन्धों पर पहनी जाती थी। श्यावाश्व की ऋचा ( ५| ५४| ११ ) में भी उल्लेख है —

  “हे मरुतो, तुम्हारे कंधों पर ऋष्टि ( हथियार ), पैरों में खादि, वक्ष पर रुक्म ( स्वर्णाभरण ) है। रथ पर तुम शोभयायमान हो।  किरणों ( हाथों ) में आग की तरह चमकने वाली बिजलियाँ और सिर पर फैले सुनहले शिप्र हैं।”

यहाँ कंधे पर नहीं, बल्कि पैरों में खादि का वर्णन बतलाता है, कि पैर के कड़े को भी खादि कहा जाता था। खादि कंकण को भी कहते थे, यह श्यावाश्व की एक ऋचा ( ५| ५८| २ ) से मालूम होता है —-

 “हे विप्रो, शक्तिशाली हाथ में खादि पहने, कंपाने का व्रती, मायावी, दाता इन मरुतों के गण की वंदना करो जो सुखदाता अमित महिमावाले बड़े ऐश्वर्य-शाली हैं।”

      भरद्वाज ( ६| १६| ४० ) भी शिशु के हाथ में खादि ( कंकण ) का उल्लेख करते हैं —

    “सुन्दर यज्ञ वाले विशों ( जनता ) की अग्नि को ( वह ) हाथम खादि-युक्त उत्पन्न शिशु की तरह धारण करते हैं।”

मोहनजोदड़ो के लोगों और ऋग्वेदिक् आर्यों के आभूषण में कुछ समानता जरूर रही होगी, क्योंकि मोहनजोदड़ो वाले अधिक संस्कृत होने से भूषण और सज्जा आर्यों के पथ-प्रदर्शक हो सकते थे।  मोहनजोदड़ो की खुदाई में कितने ही प्रकार के जेवर मिले हैं।

स्त्रियां कलाई से कंधे के पास तक पच्चीसों कंकण या चूड़े पहनती थीं, जिन्हें अभी भी पुरानी सिन्धी और मारवाड़ी महिलाओं के हाथों में देखा जा सकता है।  यदि ऋग्वेदिक् महिलाऐं सारे हाथ को सोने की खादि से नहीं ढांकती होंगी, तो एक-दो तो जरूर पहनती होंगी। 

कंकण केवल स्त्रियों का भूषण नहीं था। गले में पहनने के लिए एकलरी, चारलरी, छलरी हार भी मोहनजोदड़ो में मिले हैं।  इन्हीं सोने के हारों के पहनने वालों को ऋषियों ने रुक्मवक्षा कहा है। 

७- ओपश स्त्रियों का शिरोभूषण — शायद सोहाग-टीका जैसा था।  ( १०| ८४| ८ ) 

 वैदिककालीन  आर्यों का खान-पान 

३- सज्जा 

१- कपर्द — शरीर को सजाना मनुष्य का स्वभाविक गुण है। इसके लिए सिर्फ स्त्रियों को ही चिन्हित नहीं कर सकते, पुरुष भी अपने को सजाने की कोशिश करते हैं।  सभी आर्य दाढ़ी-मूछ धारी नहीं होते थे। इंद्र के मुंह पर पिली दाढ़ी-मूंछ ( श्मश्रु ) का उल्लेख हम पहले ही कर  चुके हैं। आर्य पुरुष भी आर्य स्त्रियों की  लम्बे केश रखते थे। यह परम्परा मुसलमानों के आने तक चलती रही। बालों को इकठ्ठा करके बनाये जूड़ा को कपर्द कहते थे।

शंकर का नाम कपर्दी इसीलिए पड़ा क्योंकि उनके सिर पर जटाजूट  है। भरद्वाज ने (६| ५५| २ ) पूषन को कपर्दी कहते हुए ईशान भी कहा है। ईशान शासक या राजा का पर्याय था, जिसे पीछे शंकर का पर्यायवाची बना दिया गया।भरद्वाज ने इसी “कपर्दी ईशान” को लेकर शंकर को जटाधारी कहा जाने लगा। जो भी हो, पूषन को भरद्वाज ने कपर्दी कहा है —–

         “श्रेष्ठ रथी कपर्दी ( जुड़ाधारी ) शासक मित्र पूषनसे हम धन की प्रार्थना करते हैं”

    उनके समकालीन वशिष्ठ भी अपने कुल के सिर के दाहिनी  ओर कपर्द बनाने वाले ( दक्षिणस्त कपर्दा ) कहा है ( ७| ३३| १ ) —–

     “मेरे गोरे, दक्षिणतः कपर्द वाले ( पुत्र ) मुझे चारों ओर से प्रसन्न करते हैं।  मैं यज्ञ से उठते कहता हूँ, मेरी वसिष्ठ-संतान मुझसे दूर न जाएँ।”

इस  कथन से जान पड़ता है, कि भिन्न-भिन्न कुलों के कपर्द ( जूड़ा ) भिन्न-भिन्न ओर बंधे होते थे।बैरागी साधु अखाड़े के अनुसार अपनी पगड़ी को दाहिने या बायें बांधने का ख्याल रखते हैं, यही बात राजपूतों के बारे में कही जा सकती है।हिन्दू के कुर्ते और मिर्जई का गला दाहिनी ओर मुसलमान का बाईं ओर  खुलता है यह हम जानते हैं।

पुराने समय का कपर्द सिक्खों की तरह जूड़ा मात्र नहीं था, बल्कि जूड़े को पगड़ी से बाहर रखकर उसे फूल  से सजाया जाता था।यश ईसा-पूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दियों की मूर्तियों को देखने से मालूम होता है। फूलों से बाल के सजाने का रिवाज ऋग्वेदिक काल में भी रहा होगा। 

     कपर्द केवल जूड़े को ही नहीं, वेणी को भी कहते थे, जैसा कि विरुप-पुत्र सध्री के कथन से ( १०| ११४| ३ ) मालूम पड़ता है —

 “चार कपर्दों वाली सुवासा ( उत्तम वस्त्र धारण किये ) धृत जैसी युवती है। उस पर कामनापूरक दो पक्षी बैठे हैं, जहां देवों ने अपने भाग्य को धारण किया।”

       यहाँ यज्ञ वेदी को चार कपर्दों वाली युवती से उपमा दी गई है। हो सकता है, कुमारियां चार वेणियां बनाती हों। दो वेणी और एक वेणी बनाने का रिवाज आज भी देखा जा सकता है। 

२- क्षौर — दाढ़ी-मूंछ या केवल दाढ़ी मुंडाने का रिवाज था, यह एक ऋचा ( १०१| ४२| ४ ) से मालूम होता है —

 “जब तुम लूटने वाली सेना की तरह ऊपर-निचे मुड़ते अलग-अलग जाते हो, जब तुम्हारा वायु बहता, तेज बहता है तो नाई ( वपता ) की तरह तुम मनो श्मश्रु ( दाढ़ी ) मूँड़ते हो।”

 ऋग्वेद में आर्य नर-नारियों की वेष-भूषा के बारे में जो बातें मिलती हैं। उनसे पता चलता है, कि आर्य उन्हें कपड़ा पहनने का शौक था, जो ऊनी, और कुछ चमड़े के भी होते थे।  वह तरह-तरह के सोने और मणि के आभूषण पहनते थे। केशों का सिंगार फूलों से करते थे। सभी आर्य पुरुष दाढ़ी रखने शौकीन  नहीं  थे, प्रौढ़ों में उसका अवश्य रिवाज था।


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