इस्लाम का उदय कब हुआ ? The Rise Of Islam In Hindi

इस्लाम का उदय कब हुआ ? The Rise Of Islam In Hindi

Share This Post With Friends

Last updated on April 29th, 2023 at 03:18 pm

इस्लाम धर्म अथवा रेगिस्तान का धर्म जिस प्रकार उभरा वह आश्चर्यजनक तो था ही लेकिन उससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक उसका तेजी से संसार में फैलना था। प्रसिद्ध इतिहासकार सर वुल्जले हेग ने ठीक ही कहा है कि इस्लाम का उदय इतिहास के चमत्कारों में से एक है। इस ब्लॉग के माध्यम से हम ‘इस्लाम का उदय कब हुआ, विषय के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करेंगे।

इस्लाम का उदय कब हुआ ? The Rise Of Islam In Hindi

इस्लाम का उदय

इस्लाम एक अभिव्यक्ति धर्म है जो 7वीं सदी में मुहम्मद नामक एक नबी द्वारा स्थापित किया गया था। इस्लाम के अनुयायी मुसलमान कहलाते हैं। इस्लाम का मतलब है “समर्पण” या “आत्मसमर्पण” जो आलोचनात्मक ध्यान के विरुद्ध होता है। इस्लाम धर्म में एक ईश्वर होता है, जिसे अल्लाह कहा जाता है।

622 ईसवी में एक पैगंबर ने मक्का को छोड़कर मदीना की शरण ली, और फिर उसके एक शताब्दी बार उसके उत्तराधिकारियों और उसके अनुयायियों ने एक ऐसे विशाल साम्राज्य पर शासन करना शुरू किया जिसका विस्तार प्रशांत महासागर से सिंधु तक और कैस्पियन से नील तक था।  क्या यह सब कुछ अचानक हुआ? यह सब कुछ कैसे हुआ? यह एक शिक्षाप्रद कहानी है। परंतु उस कहानी हो जानने से पहले हमें यह जानना उचित होगा वह कौन-से स्रोत हैं जिनसे हमें इस्लाम के साथ-साथ दिल्ली सल्तनत का इतिहास जानने में भी सहायता मिलेगी।

मध्यकालीन भारत का इतिहास जानने के प्रमुख स्रोत कौन-कौन से हैं

मध्यकालीन भारत का इतिहास जानने के लिए हमारे पास बहुत अधिक संख्या में मौलिक पुस्तके हैं जिनसे हमें महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। हमें ईलियट और डौसन के अनुवादों से ऐसी सामग्री भरपूर मात्रा में मिल सकती है।

1-चाचनामा-  

चाचनामा आरंभ में अरबी भाषा में लिखा गया ग्रन्थ है। मुहम्मद अली बिन अबूबकर कुफी ने बाद में नसिरुद्दीन कुबाचा के समय में उसका फारसी में अनुवाद किया।  डॉक्टर दाऊद पोता ने उसे संपादित करके प्रकाशित किया है। यह पुस्तक अरबों द्वारा सिंध की विजय का इतिहास बताती है।  यह हमारे ज्ञान का मुख्य साधन होने की अधिकारिणी है।

2 -तवकात-ए-नासरी-  

तबकात-ए-नासिरी का लेखक मिनहाज-उस-सिराज था। राबर्टी ने उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया । यह एक समकालीन रचना है और 1260 ईस्वी में यह रचना पूर्ण हुई। दिल्ली सल्तनत का 1620 ईस्वी तक का इतिहास और मोहम्मद गौरी कि भारत विजय का प्रत्यक्ष वर्णन इस पुस्तक में मिलता है।  इस पर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मिनहाज-उस-सिराज एक पक्षपात रहित लेखक ने था उसका झुकाव मुहम्मद गौरी, इल्तुतमिश और बलबन की ओर अधिक था। 

3- तारीख-ए-फिरोजशाही-

तारीख-ए-फिरोजशाही का लेखक जियाउद्दीन बरनी था। यह लेखक गयासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद तुगलक और फीरोज तुगलक का समकालीन था। बरनी ने बलबन से लेकर फीरोज तुगलक तक का इतिहास लिखा है। उसने दास वंश, खिलजी वंश और तुगलक वंश के इतिहास का बहुत रोजक वर्णन किया है।

यह पुस्तक, जो अब बंगाल की एशियाटिक सोसायटी ने प्रकाशित की है, 1339 ईस्वी में पूर्ण हुई। यह पुस्तक इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखी गई है, जो शासन में उच्च पद पर नियुक्त था और जिसे शासन का वास्तविक ज्ञान था। लेखक ने भूमि-कर प्रबंध का विस्तार से वर्णन किया है। परन्तु बरनी भी एक पक्षपात रहित लेखक नहीं था इसके अतिरिक्त उसकी लेखनी बहुत गूढ़ है। 

4- तारीख-ए-फिरोजशाही- 

शम्मस-ए-सिराज अफीफ ने अपनी पुस्तक ‘तारीख-ए-फिरोजशाह’ में फीरोज तुगलक का इतिहास लिखा है। लेखक स्वयं फीरोज तुगलक के दरबार  सदस्य  था। निश्चित ही  यह एक उच्च कोटि की पुस्तक है। 

5- ताज-उल-मासिर-

     इस पुस्तक का लेखक हसन निजामी है।  इस पुस्तक में 1162-से- 1228 ईस्वी तक का दिल्ली सल्तनत का इतिहास वर्णित हैं। लेखक ने कुतुबुद्दीन ऐबक के जीवन और इल्तुतमिश के राज्य के प्रारम्भिक वर्षों का वर्णन किया है। एक समकालीन वृतांत होने के कारण यह उत्तम कोटि का ग्रन्थ है। 

6- कामिल-उत-तवारीख- 

शेख अब्दुल हसन ( जिसका उपनाम इब्नुल आमिर था ) ने ‘कामिल-उत-तवारीख’ की रचना की। इसकी रचना 1230 ईस्वी में हुई। इसमें मुहम्मद गौरी की विजय का वृतान्त मिलता है। यह भी एक समकालीन वर्णन है और यही इसके उपयोगी होने का कारण है।

पैगम्बर मुहम्मद साहब का जन्म कब हुआ

 इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगंबर मुहम्मद साहब थे। अरब के एक नगर मक्का में उनका जन्म 570 ईसवी में हुआ। दुर्भाग्य से उनके पिता की मृत्यु उनके जन्म से पूर्व ही हो गई और जब वह केवल 6 वर्ष की अवस्था के थे तब उनकी माता की भी मृत्यु हो गई।

मुहम्मद साहब का पालन पोषण किसने किया 

माता-पिता की मृत्यु के बाद मुहम्मद साहब का पालन पोषण उनके चाचा अबू तालिब ने किया। मुहम्मद साहब का बचपन अत्यंत गरीबी में गुजरा। उन्होंने भेड़ों के एक समूह की देख-भाल की व व्यापार कार्य में अपने चाचा का हाथ बटाया.

मुहम्मद साहब की पत्नी का क्या नाम था  

मुहम्मद साहब का वैवाहिक जीवन बहुत सरल और आदर्शवादी था। वे खुद एक आदर्श वैवाहिक जीवन जीते थे और लोगों को एक सुदृढ़ वैवाहिक सम्बन्ध बनाने के लिए प्रेरित किया था।

मुहम्मद साहब का पहला विवाह उनकी जवाहिर बिंते खुज़ैमा से हुआ था। उन्हें उससे बहुत प्यार था और वे उसे “खादीजा” के नाम से जानते थे। वे उम्र में मुहम्मद साहब से बहुत बड़ी थीं और उन्हें विधवा होने के बाद सम्बन्ध बनाने का विचार आया था। खादीजा के साथ मुहम्मद साहब के 25 साल तक के सुखद वैवाहिक जीवन का जीता जागता उदाहरण दिया जाता है।

उन्होंने खादीजा के बाद और भी कई वैवाहिक सम्बन्ध बनाए, जिनमें एक बेहतरीन सम्बन्ध था जो उनकी दूसरी पत्नी आइशा के साथ था। वे आइशा को अपनी आखिरी और सबसे प्यारी पत्नी मानते थे।

मुहम्मद साहब को ज्ञान कब प्राप्त हुआ

विवाह के उपरांत भी मुहम्मद धार्मिक खोजो में लगे रहे। वह समाधि में घंटों मगन रहते थे। 40 वर्ष की आयु में फरिश्ता जिब्राइल ने उन्हें ईश्वर का संदेश दिया। फरिश्ते ने उन्हें ज्ञान दिया कि उन्हें संसार में अल्लाह का प्रचार करने के लिए भेजा गया है। इस घटना के उपरांत पैगंबर मोहम्मद ने अपना शेष जीवन अल्लाह के संदेश को संसार मैं प्रचारित करने में व्यतीत किया उन्होंने अरबों में प्रचलित अंधविश्वास व मूर्ति पूजा की घोर निंदा की। 

उनके कुल जिसे कुरेस कहा जाता था का कावा पर अधिकार था। वहां 360 मूर्तियां थी।  मूर्तिपूजको की आय  से मुहम्मद साहब के संबंधियों का जीवन निर्वाह होता था। मुहम्मद साहब को बुरा-भला कहा गया और उन पर पत्थर फेंके गए क्योंकि मूर्ति पूजा के विरोध से विशेष हित वाले लोगों को बहुत हानि होने लगी।

हिजरी संवत का प्रारंभ कब हुआ 

मूर्ति पूजा के विरोध के कारण मुहम्मद साहब को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनकी जान लेने के प्रयास किए गए स्थिति विकट हो जाने पर मुहम्मद साहब ने 622 ईसवी में मक्का शहर छोड़ दिया और मदीना में शरण ली। जुलाई  622 ईसवी में  हिजरी संवत का आरंभ हुआ, यह तिथि पैगंबर के मक्का त्यागने की स्मृति में है।

इस्लाम धर्म का प्रसार

हजारों लोग मुहम्मद साहब के उसी समय से अनुयाई बन गए थे जबकि वे मक्का में रहते थे, उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। मदीना में पवित्र कुरान की रचना हुई। वहां ही इसकी शिक्षाओं को निश्चित रूप मिला। उन्होंने यह आदेश दिया “अल्लाह ईश्वर है और मोहम्मद अल्लाह का पैगंबर है”। उन्होंने ईश्वर की एकता पर जोर दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों को उन फरिश्तों के आदेशों पर विश्वास करने का उपदेश दिया जो ईश्वर से संदेश लाते हैं। कोई भी मुसलमान पवित्र क़ुरान की निंदा नहीं कर सकता था और कुरान को स्वयं-अभिव्यक्त पुस्तक माना जाने लगा।

मुहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों को प्रलय में विश्वास करने का उपदेश दिया। अपने सद्गुणों वदोषों के लिए कयामत (प्रलय )  या न्याय के दिन प्रत्येक व्यक्ति को पुरस्कार व दंड मिलेगा। उसके अनुयायियों को पांच कर्तव्यों की पूर्ति करना जरूरी था। उन्हें कलमा का पाठ करना और अल्लाह व पैगंबर में निष्ठा रखना आवश्यक था। उन्हें दान हेतु अपनी आय का 1/10 भाग अथवा जकात देना अनिवार्य था। उनसे आशा की जाती थी कि वे प्रतिदिन पांच बार नमाज पढ़े। 

रमजान के मास में भी उपवास या व्रत (रोजे) रखते थे। मक्का जाना या हज करना उनका धार्मिक कर्तव्य था। मूर्तिपूजा निषिद्ध थी। उनकी मस्जिदों में भी कोई मूर्ति या चित्र नहीं हो सकता था। प्रत्येक मस्जिद में “एक खुला दरबार होता था जिसमें कोई सजावट नहीं होती थी; केवल कुरान की पुस्तक एक मेहराब और एक आला जो मक्का की दिशा प्रकट करता था, और एक बुर्ज जिस पर खड़े होकर प्रार्थना के लिए पुकारा जाता था, होना आवश्यक था”। 

 

मुहम्मद साहब की मृत्यु कब और किस प्रकार हुई

मुहम्मद साहब की मृत्यु 8 जून 632 ईसा पूर्व को हुई थी। उन्होंने उम्मते मुस्लिमा के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था। उनकी मृत्यु के बाद, उनके जीवन के संदेशों और उपदेशों का महत्व बढ़ गया था और उन्हें एक दैनिक जीवन विशेषज्ञ और सभी उम्मतों के लिए एक संदर्भ बनाने वाले धर्म के गुरु माना जाता है। उनकी मृत्यु के बाद, खलीफा अबू बक्र ने उनके प्रतिनिधित्व में उम्मते मुस्लिमा के नेता बनकर उनकी सामाजिक और धार्मिक विरासत को संरक्षित किया।

यह उल्लेखनीय है कि इस्लाम धर्म या “रेगिस्तान का धर्म” संसार में शीघ्रता से फैला। 632 ईस्वी में मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद उसका कार्य उमैयद खलीफाओं ने संभाला। पहले चार खलीफा (अबू बकर, उमर, उस्मान, और अली) के काल में इस्लाम धर्म संसार के विभिन्न भागों में फैला।

पैगंबर की मृत्यु के 100 वर्षो के अंदर मुसलमानों ने दो शक्तिशाली साम्राज्यों (ससानिद और बाइजेंटाइन ) को पराजित किया। उन्होंने सारे सीरिया ईरान व मेसोपोटामिया पर विजय प्राप्त की। गिबन के शब्दों में “हिजरत की प्रथम शताब्दी के अंत में ख़लीफ़े पृथ्वी के निरंकुश और अत्यंत शक्तिशाली शासक थे।”  मुसलमानों का साम्राज्य इतना विशाल हो गया कि खलीफ़ों को अपनी राजधानी मदीना से हटाकर दमिश्क बनानी पड़ी। 

सन 750 ईसवी में  अबुल अब्बास के अनुयायियों ने (अब्बासिदों ) ने  एक क्रांति का नेतृत्व किया। उमैयदों के अंतिम व्यक्ति का मिस्र में अंत कर दिया गया। अब्दुल अब्बास ने ख़लीफ़ों के एक नए वंश की स्थापना की। अब्बास ने “अपना शासन कार्य प्रत्येक उमैयद वंशी को कारावास में डालकर प्रारंभ किया। उसने उनकी हत्या के आदेश दिए। उनके शवों को संचित करके उन्हें चमड़े के गलीचे से ढका गया और उनसे निर्मित घृणाजनक मंच पर बैठकर अब्बास व उसके परामर्शदाताओं ने उत्सव मनाया। इसके अतिरिक्त उमैयदों के मकबरों को उखड कर उनकी अस्थियों को जलाया गया व उन्हें चारों दिशाओं  में फेंका गया।

762 ईस्वी में अब्बासियों ने अपनी राजधानी दमिश्क  से हटाकर बगदाद  बनाई। यह विषय स्मरणीय है कि उमैय्यद लोग सुन्नी शाखा के थे और अबासिद  लोग शिया  शाखा के मानने वाले थे। उमैय्यदों की ध्वजा श्वेत और अबासिदों की ध्वजा का रंग काला था। अबासिदों  के प्रभाव में बगदाद कला व शिक्षा का केंद्र बन गया। अल मंसूर व  हारून-उर-रशीद अबासिद  ख़लीफ़ों में प्रमुख हैं। 

निष्कर्ष 

इस प्रकार इस्लाम दुनिया में सबसे तेजी से फैलने वाला धर्म था। इस्लाम धर्म के प्रचार में अरबों और तुर्कों  ने  प्रशंसनीय भाग लिया। अरबों ने इस धर्म को संस्कृति प्रदान की औरत और तुर्कों ने बल व क्रूरता की विशेषताओं का संचार किया। आठवीं शताब्दी के आरंभ में अरबों ने सिंध पर विजय प्राप्त की, परंतु देश के अंदरूनी भागों की ओर अग्रसर होने होने सफलता प्राप्त न  हुई। यह कार्य 11वीं, 12वीं व  13वीं शताब्दी में तुर्कों  द्वारा पूर्ण हुआ। भारत में मुसलमानों ने अपना साम्राज्य विस्तार कर एक नई संस्कृति और सभ्यता को जन्म दिया। 


Share This Post With Friends

Leave a Comment

Discover more from 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading