भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद: कृषि पर प्रभाव, शिक्षा पर प्रभाव, आर्थिक प्रभाव , सामाजिक प्रभाव और राजनीतिक प्रभाव

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद: कृषि पर प्रभाव, शिक्षा पर प्रभाव, आर्थिक प्रभाव , सामाजिक प्रभाव और राजनीतिक प्रभाव

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ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में प्रवेश मुख्यत: व्यापार के लिए किया था, लेकिन भारत की परिस्थितियों ने उन्हें इस देश का मालिक बना दिया। उन्होंने अपनी नीतियों के द्वारा भारत के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया इस ब्लॉग के माध्यम से हम उन क्षेत्रों का अध्ययन करेंगे जहां पर उपनिवेशीकरण का प्रभाव अत्याधिक पड़ा। जहां यह प्रभाव नकारात्मक थे वहीं कुछ क्षेत्रों में यह प्रभाव सकारात्मक भी थे। इस लेख में हम उपनिवेशीकरण के निम्नलिखित प्रभावों का अध्ययन करेंगे-

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद: कृषि पर प्रभाव, शिक्षा पर प्रभाव, आर्थिक प्रभाव , सामाजिक प्रभाव और राजनीतिक प्रभाव

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद

भारत के राष्ट्रीय आंदोलन पर उपनिवेशवाद का सीधा प्रभाव पड़ा। इस प्रभाव की कटु वास्तविकता के संदर्भ में रविन्द्रनाथ टैगोर ने 1941 में (अपनी मृत्यु से मात्र 3 महीने पहले) लिखा था:
भाग्य चक्र एक दिन अंग्रेजों को बाध्य कर देगा कि वे अपने भारतीय साम्राज्य के मोह को त्याग दें, कैसी नग्न नियति है? उनके शताब्दियों के प्रशासन की नदी अंततः अब सूख जाएगी, कैसा अवांछनीय कीचड़ और गंदगी वे अपने पीछे छोड़ जाएंगे’?

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण-

अन्य क्षेत्रों की भांति आर्थिक क्षेत्र में भी अंग्रेजी राज्य ने भारत में आमूल-चूल परिवर्तन किया। ए० गुंडर फ्रैंक की  युक्ति के अनुसार यद्यपि सारे परिवर्तन “पिछड़ेपन में बढ़ोतरी” करने के लिए हुए। यदि अलग से देखें तो कुछ सकारात्मक परिवर्तन भी हुए, उदाहरण के लिए रेल का विकास। किंतु कृषि, उद्योग, यातायात और संचार, वित्त प्रशासन, शिक्षा इत्यादि के क्षेत्रों में यह परिवर्तन औपनिवेशिक दायरे के भीतर ही हुए। इसलिए ये पिछड़ेपन की प्रक्रिया का हिस्सा बन गए। इन्होंने औपनिवेशिक आर्थिक ढांचे को पारदर्शी बनाया जिसके कारण गरीबी और ब्रिटेन के अधीनता पर निर्भरता बढ़ी।

औपनिवेशीकण का औद्योगिकरण पर प्रभाव:

भारत में औपनिवेशिक ढांचे के 4 मूलभूत लक्षण थे:–

 पहला— उपनिवेशवाद ने भारत की अर्थव्यवस्था का विश्व पूंजीवादी पद्धति के साथ जी हजूरी की स्थिति में पूर्ण किंतु पेचीदा एकीकरण किया। 1750 के दशक से भारत  के आर्थिक सरोकार पूर्णतया ब्रिटिश सरोकारों के अधीन थे। यह उल्लेखनीय है कि भारतीय समाज और उसकी अर्थव्यवस्था की स्वाधीनता का एक निर्णायक पहलू था विश्व अर्थव्यवस्था के साथ उसका एकीकरण। एक बार पूंजीवादी व्यवस्था और विश्व बाजार के विकसित हो जाने पर यह अपरिहार्य था। विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण केवल स्वतंत्रत अर्थव्यवस्थाओं की विशेषता थी।

 द्वितीय:– ब्रिटिश उद्योग के अनुरूप उत्पादन का एक विचित्र ढांचा और अंतर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन भारत पर लाद दिया गया था। इसके तहत खाद्य सामग्री, कच्चा माल, कपास, पटसन, तिलहन, खनिज, आदि का निर्यात किया गया और ब्रिटिश उद्योग द्वारा उत्पादित बिस्कुट और जूतों से लेकर मशीनों, कारों और रेलवे इंजनों तक का आयात किया गया।

विषय सूची

भारत द्वारा पटसन एवं सूती कपड़े जैसे गहन काम पर आधारित उद्योगों के विकसित हो जाने पर भी उपनिवेशवाद का यह सिलसिला जारी रहा है। यह इसलिए भी हुआ क्योंकि भारत के औपनिवेशिक संबंधों का आधारभूत पहलू विचित्र अंतर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन था जिसके तहत ब्रिटेन ने उच्च तकनीक, उच्च उत्पादन और गहन पूँजी की वस्तुओं का उत्पादन किया जबकि भारत ने निम्न तकनीक, निम्न उत्पादन, तथा गहन श्रम की वस्तुओं का उत्पादन किया।

इस पृष्ठभूमि में देखने पर भारत के विदेश व्यापार का ढंग भारतीय अर्थव्यवस्था के औपनिवेशिक चरित्र की ओर संकेत करता है  1935-39 तक आते-आते खाद्य पेय, तम्बाकू और कच्चा माल भारत के निर्यात का  68.5% था जबकि तैयार माल का आयात 64.4% था।

तृतीय:— आर्थिक विकास की प्रक्रिया में तीसरा आधारभूत पहलू अर्थव्यवस्था में निवेश और तत्पश्चात विस्तार के लिए उत्पन्न आर्थिक बढ़त एवं बचत के आकार तथा उपभोग का था। 1914 से 1946 तक भारतीय अर्थव्यवस्था की शुद्ध बचत कुल राष्ट्रीय उत्पाद की मात्र 2.75% (यानि राष्ट्रीय आय) शुद्ध बचत का लघु आकार 1971-75 में उसकी तुलना में देखा जा सकता है जब यह कुल राष्ट्रीय उत्पाद (कु० रा० उ०) का 12.35% था।

1914-46 के दौरान यह तुच्छ पूंजी निर्माण के रूप में परिलक्षित हुआ जब यह कुल राष्ट्रीय उत्पादन का 6.75% था (1971-75 के मुकाबले कुल राष्ट्रीय उत्पादन का 20.14%)।  इस पर भी इस निम्न स्तर पूंजी निर्माण में उद्योग का हिस्सा न होने के बराबर कम था। 1914-46 के कुल राष्ट्रीय उत्पादन में मशीन निर्माण मात्र 1.78% था (यह आंकड़ा 1971-75 के दौरान 6.53 था)।

 इसके अतिरिक्त भारत की सामाजिक बढ़त या बचत का वृहद भाग उपनिवेशी राज द्वारा विनियोजित किया गया और उसका गलत इस्तेमाल हुआ। एक अन्य बड़ा हिस्सा देशी भू-स्वामियों और महाजनों द्वारा भी नियोजित हुआ। औपनिवेशिक अवधि के समाप्त होने पर गणना से पता चला कि किसानों द्वारा प्रतिवर्ष दिया गया ब्याज और लगान 1400 लाख रूपए था।

1937 तक कुल ग्रामीण ऋण 18000 लाख रुपए था। एक अन्य अनुमान के अनुसार भू-स्वामियों और अन्य बिचौलियों द्वारा राष्ट्रीय आय का 20% विनियोजित किया गया। इसके अतिरिक्त महाजनों एवं भू- स्वामियों द्वारा विनियोजित की गई इस वृहद बचत का एक छोटा सा भाग कृषि एवं उद्योग के विकास में निवेश किया गया। इसमें से अधिकांश का उपयोग फिजूल के खर्चों में या सूदखोरी तथा जमींदारी को बढ़ावा देने में खर्च किया गया।

 वहां एक ‘निकास’ था। औपनिवेशिक राज और उसके अफसरों तथा विदेशी व्यापारियों द्वारा निर्यात के मुकाबले अधिक आयात करके सामाजिक बढ़त और संभावित निवेशात्मक पूँजी को ब्रिटेन में एक तरफा स्थानांतरित कर दिया गया। भारत को इसके बदले में इसके बराबर आर्थिक, व्यापारिक या द्रव्यात्मक किसी भी रूप में कुछ भी नहीं मिला।

यह अनुमान लगाया गया है कि कुल राष्ट्रीय आय का 5 से 10% एकतरफा यानी बिना किसी प्राप्ति के विदेशी शासकों के द्वारा देश से बाहर निर्यात किया गया। अपने वित्तीय स्रोतों और संभावित पूंजी के विकास के रहते कोई देश विकास नहीं कर सकता था। 

  चतुर्थ:—- उपनिवेशवाद का भारत में चौथा आधारभूत पहलू था औपनिवेशिक राज द्वारा भारत को ब्रिटेन के अधीन करने में और औपनिवेशिक ढांचे के अन्य पहलुओं के निर्माण, निर्धारण एवं रखरखाव में निभाई गई निर्णायक भूमिका में ब्रिटिश अर्थव्यवस्था और ब्रिटिश पूंजीवादी वर्ग के हितों के लिए भारत की नीतियाँ ब्रिटेन में निर्धारित होती थीं।

भारत के पिछड़ेपन का महत्वपूर्ण पहलू उद्योग और कृषि को राज्य के सहयोग से वंचित रखना था। ब्रिटेन सहित लगभग सभी पूँजीवादी देश अपनी आरंभिक अवस्था में राज्य के सक्रिय सहयोग से विकसित हुए थे। औपनिवेशिक राज ने ब्रिटेन, पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्यों की देखा-देखी उद्योग को बिना संरक्षण शुल्क दिए भारत पर उमुक्त व्यापार लाद दिया।

       राष्ट्रीय आंदोलन के दबावों के पश्चात भारत सरकार ने 1918 के पश्चात मजबूर होकर उद्योगों को संरक्षण प्रदान किया। किन्तु यह शुल्क संरक्षण अपर्याप्त एवं अप्रभावी था। 1880 के दशक में ब्रिटिशउद्योग के पक्ष में मुद्रा नीति में हेरफेर किया गया जो भारतीय उद्योगों के लिए अहितकर था।

        जैसा कि पहले संकेत किया चुका है भारत की सामाजिक बढ़त का हिस्सा,  औपनिवेशिक सरकार द्वारा विनियोजित किया गया। किंतु इसका एक छोटा हिस्सा,कृषि या उद्योग या समाज संरचना पर यह राष्ट्रीय निर्माण की गतिविधियों जैसे—- जैसे शिक्षा, सिंचाई और स्वास्थ्य सेवाओं के विकास पर खर्च किया गया।

       औपनिवेशिक राज ने अपनी लगभग संपूर्ण आय भारत में ब्रिटिश प्रशासन की आवश्यकताओं को  प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों और ब्रिटिश व्यापार और उद्योग की आवश्यकताओं को पूरा करने में खर्च किया। 1890 के पश्चात केंद्र सरकार की आय का लगभग 50% सैनिक खर्चों में खपने लगा। 1947-48 में यह आंकड़ा 47 के लगभग था।

  उपनिवेशीकरण का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

    भारत में करों का ढांचा सर्वथा अपर्याप्त था। अधिकतर औपनिवेशिक काल में जब कि किसान लगान की मांग के नीचे दबे रहते थे और गरीबों को नमक कर इत्यादि देना पड़ता था, उच्च आय वर्गो—– उच्च आय वाले नौकरशाहों, जमींदारों, व्यापारियों और दुकानदारों को न के बराबर कर देना पड़ता था। प्रत्यक्ष करों का स्तर बहुत गिरा हुआ था।

⚫1946-47 में आयकर देने वालों की संख्या मात्र 3,60000 थी।  राष्ट्रीय एवं किसान आंदोलन के तहत बीसवीं शताब्दी में भूमि लगान और नमक कर में कुछ कमी होनी आरंभ हुई। 1900-1 तक आते-आते भूमि लगान और नमक कर सरकार के कुल कर राजस्व का क्रमशः 53 एवं  16% था।

औपनिवेशीकरण का भारतीय कृषि पर प्रभाव:—

       उपनिवेशवाद भारत के कृषि एवं औद्योगिक विकास में बाधा बन गया। देश के अधिकांश भागों में कृषि स्थिर हो गई और वर्षों तक उसका अपकर्ष हुआ परिणामस्वरूप प्रतिखंड उत्पादन एकदम गिर गया। 1901 से 1941 के मध्य प्रति व्यक्ति कृषि उत्पादन में ह्रास हुआ जिसमें 14% के लगभग गिरावट आई। उन वर्षों में खाद्य सामग्री में प्रति व्यक्ति गिरावट और भी अधिक थी जो लगभग 24% थी।  प्रति एकड़ उत्पादन बहुत कम था जो धीरे-धीरे शून्य के बराबर पहुंच गया। 

       इन वर्षों में एक कृषक ढांचे का विकास हुआ जिस पर भू-स्वामियों, महाजनों, व्यापारियों और औपनिवेशिक राज का वर्चस्व था और यह किसी तरह की कृषि के विकास में सहायक नहीं था। जमीदारी और रैयतवाड़ी दोनों क्षेत्रों में  उप सामंती काश्तकारी और बटाई का अधिपत्य रहा। 1940 के दशक तक आते-आते भू-स्वामी ने 70% से अधिक भूमि पर नियंत्रण कर लिया तथा महाजनों एवं औपनिवेशिक राज के साथ मिलकर कुल कृषि उत्पादन का आधे से अधिक भाग विनियोजित कर लिया।

      कृषि में औपनिवेशिक राज्य की दिलचस्पी वसूल करने तक ही रही और उसके विकास के लिए बदले में बहुत कम खर्च किया गया। उसी प्रकार भू-स्वामियों और महाजनों ने निजी स्वामित्व या अधिकार वाली भूमि पर कोई उत्पादक निवेश करने के बजाय काश्तकारों, बटाईदार उसे निष्ठुतापूर्वक लगान एवं सूद वसूल करने के अतिरिक्त कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रही।

       व्यवसायीकरण एवं काश्तकारी कानून के फलस्वरूप कई क्षेत्रों में धनी किसानों का ही विकास हुआ। किंतु उनमें से भी अधिकांश ने भूमि खरीदकर भूमिपति बनना या महाजनी करना अधिक लाभदायक समझा।  परिणामस्वरूप कुछ क्षेत्रों को छोड़कर कहीं पर भी पूंजीवादी कृषि का विकास नहीं हो सका।

      दूसरी ओर साधनहीन—– जिनमें अधिकांश छोटे किसानों,  स्वेच्छिक काश्तकारों, एवं बटाईदारों के पास कृषि विकास में बेहतर पशु या बीज अधिक खाध उर्वरक और उत्पाद की विकसित तकनीक में निवेश करने के लिए प्रोत्साहन या स्रोत नहीं थे। अधिकतर औपनिवेशिक काल में भूमिहीनता बढ़ती रही। इसलिए 1871 में कृषि जनसंख्या में वृद्धि के कारण भूमि और अधिक छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गई और  इन टुकड़ों में बिखराव के कारण कृषि नितांत और किफायती हो गई जो किसान को जीविका देने में भी असमर्थ थी। 

        यद्यपि सड़कों और रेलवे के विकास और विश्वबाजार के साथ संबंधों के कारण ग्रामीण उत्पाद शहरी और विश्वबाजारों तक पहुंचा और व्यवसायिक खेती का उत्पादन हुआ किंतु कृषि के व्यवसायीकरण से भी विकसित पूंजीवादी तकनीक नहीं आई। इसका मुख्य कारण यह था कि बेहतर मिट्टी और उपलब्ध पानी तथा अन्य स्रोतों को खाद्य फसलों की बजाए व्यवसायिक फसलों की ओर मोड़ दिया।

     जिस समय विकसित देशों में कृषि का कायाकल्प और आधुनिकीकरण हो रहा था उस समय भारतीय कृषि में तकनीक पर या उत्पाद पर आधारित परिवर्तन एवं उत्पाद में परिवर्तन लगभग नहीं के बराबर था। भारतीय कृषक सदियों से जिनका प्रयोग कर रहे थे आज भी उन्हीं आदिम साधनों पर निर्भर थे।

उदाहरण के लिए 1951 में प्रयोग में आने वाले लोगों के हलों की संख्या मात्र 930,000 थी जब की लकड़ी के हल गिनती में 31.8 लाख थी। गाय का गोबर, काली मिट्टी, पशुओं की हड्डियां नष्ट हो रही थीं। 1938-39 में कुल खेती योग्य भूमि के 11% पर ही उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग हो रहा था। इन  उन्नत बीजों का प्रयोग अखाद्य-नकदी फसलों तक ही सीमित था।

     इसके अतिरिक्त कृषि पर आधारित शिक्षा सर्वथा नगण्य थी, 1946 में 3110 विद्यार्थियों सहित मात्र 9 कृषि महाविद्यालय थे। क्यारियां बनाने, बाढ़ नियंत्रण, नालियां बनाने एवं मिट्टी को छार-रहित करने के लिए निवेश नगण्य था। केवल सिंचाई के क्षेत्र में थोड़ी उन्नति हुई इसलिए 1940 के दशक तक कुल कृषि योग्य क्षेत्र का लगभग 27% क्षेत्रफल सींचा गया। तब भी कृषि-सिंचाई के क्षेत्र में भारत काफी आगे था।

औपनिवेशीकरण का भारतीय कुटीर-उद्योगों पर प्रभाव:–

        उद्योग की स्थिति भारत के पिछड़ेपन का मूल कारण थी। 19वीं शताब्दी के दौरान भारत पर उनमुक्त व्यापार की नीति का लादना और ब्रिटेन के रास्ते सस्ते तैयार माल का आयात करना यहां के हस्तशिल्प एवं शिल्पगत उद्योग के पतन का मूल कारण था। तबाहहाल शिल्पकार वैकल्पिक रोजगार ढूंढने में असफल रहे। कृषि के क्षेत्र में, काश्तकारों, बटाईदारों और कृषि मजदूरों के रूप में धक्कमपेल करने का एकमात्र विकल्प उनके पास बचा था।

       19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से भारत में आधुनिक उद्योग का विकास हुआ किंतु उत्पाद एवं रोजगार दोनों के संदर्भ में औद्योगिक विकास का स्तर नीचे रहा, विकसित देशों के साथ जिसकी तुलना करना व्यर्थ था। इसमें हस्तशिल्प उद्योग के विस्थापन की छतिपूर्ति नहीं की। 19वीं शताब्दी में भारतीय उद्योग का विकास मुख्यतया कपास एवं पटसन उद्योग और चाय की रोपाई तथा 1930 के दशक में ईंट, सीमेंट और कागज तक सीमित रहा।

1907 के बाद लोहे और इस्पात उद्योग में भी कुछ विकास हुआ। 1946 तक आते-आते सभी फैक्ट्रियों में काम कर रहे कामगारों का 30% कपास, पटसन और कपड़ा उद्योग में लगा था और निर्माण द्वारा प्राप्त कुल मूल्य के 55% से अधिक था। ब्रिटिश शासन के अंत में राष्ट्रीय आय में आधुनिक उद्योगों का भाग केवल 7.5% था। इसी प्रकार बैंक और बीमा उद्योग भी काफी पिछड़े हुए थे।

भारतीय उद्योगों पर औपनिवेशीकरण का प्रभाव

       भारतीय उद्योग के पिछड़ेपन का महत्वपूर्ण सूचक उसकी महानगरों पर अधिक निर्भरता मुख्यता पूंजीगत वस्तुओं और मशीन उद्योग के कारण थी। 1950 में भारत ने मशीनी औजारों की अपनी 90% आवश्यकता आयात के माध्यम से पूरी की। भारतीय अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन के चरित्र को 1950 और 1984 की कुछ आर्थिक  सांख्यिकी की तुलना की रौशनी में देखा जा सकता है।

(1984 की संख्या कोष्टक में दी गई हैं) 1950 में भारत में 1.04 लाख टन इस्पात का उत्पादन किया ( 6.9 लाख टन) 32.8 लाख टन कोयला (155.2 लाख टन), 2.7 लाख टन सीमेंट ( 29.9 लाख टन) 3 सुबाहय औजार (23.28 करोड रुपए) 7 रेल इंजन (200) 99000 बाईसाइकल (5944.00) 4 करोड़ बिजली के लैंप (317.8 करोड़) 3300 सिलाई मशीनें (33800)  14 कि. वा. पनविद्युत प्रतिव्यक्ति (160 किलो वाट जल विद्युत)1950 में बैंकों के कार्यालयों और ब्रांचों की संख्या 5072 थी जो बढ़कर 1983 में 33,055 हो गई। 36 करोड़ की कुल जनसंख्या में से केवल 2.3 करोड़ आधुनिक उद्योग में कार्यरत थे।

 कृषि पर बढ़ती हुई निर्भरता के कारण भारतीय जनसंख्या का ग्रामीण-शहरी अनुपात आर्थिक पिछड़ेपन का एक और सूचकांक था। 1951 में जनसंख्या का लगभग 52.3% ग्रामीण था जबकि 1901 में 637% भारतीय कृषि पर निर्भर थे 1941 तक यह आंकड़ा 70 तक पहुंच गया। दूसरी ओर 1901 में संसाधन एवं निर्माण में लगे व्यक्तियों की संख्या 10.3 करोड़ से घटकर 1951 में 8.8 करोड़ हो गई यद्यपि जनसंख्या लगभग 40% बढ़ी।

     1930 के दशक के अंत तक औद्योगिक एवं वित्तीय क्षेत्रों में विदेशी पूंजी का वर्चस्व रहा और विदेशी व्यापार श्रंखला के साथ-साथ निर्यात पर आधारित आंतरिक व्यापार पर नियंत्रण रहा। कोयला खदान, पटसन-उद्योग, जहाज परिवहन का वर्चस्व रहा। इसके अतिरिक्त अपनी प्रबंधक ऐजंसियों के माध्यम से अधिकांश भारतीय स्वामित्व वाली कंपनियों को नियंत्रित किया। यह ध्यान देने योग्य बात है कि विदेशी पूंजी के नकारात्मक प्रभाव इसलिए थे क्योंकि राज्य शक्ति विदेशी नियंत्रण में थी।

 भारतीय औद्योगिक विकास का एक और नकारात्मक पहलू इसका का नितांत असंतुलित क्षेत्रीय चरित्र था। उद्योग देश के क़ुछ क्षेत्रों और शहरों तक केंद्रित थे। इससे न केवल क्षेत्रीय आय में असमानताएँ आईं अपितु क्षेत्रीय एकीकरण के स्तर पर भी प्रभाव पड़ा।

  औपनिवेशीकरण के सकारात्मक प्रभाव

 यद्यपि 1930 और 40 के दशक में भारत में 65000 मील  पक्की सड़कें और लगभग 42000 मील लंबी रेल पटरी थी। रेनू और लड़कों ने देश को एकीकृत किया और माल तथा सवारियों के आने-जाने में तेजी आई किंतु इसी के साथ औद्योगिक क्रांति के अभाव में मात्र व्यापारिक क्रांति ही सामने आई जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को और भी औपनिवेशिक बना दिया है।  रेल की पटरियाँ मूलतः इस दृष्टि से बिछाई गई थी कि भारत के अंदर के कच्चे माल के उत्पादन क्षेत्रों को निर्यात करने वाली बंदरगाहों के माध्यम से देश के भीतर कोने-कोने में पहुंचाया जा सके।

भारतीय उद्योग के लिए सस्ते और कच्चे माल के स्रोतों की आवश्यकताओं को नजरअंदाज कर दिया गया क्योंकि अंतर्देशीय केंद्रों के माध्यम से यातायात को बढ़ावा देने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए। माल भाड़ा इस तरह से तय किया गया कि माल की आंतरिक आवा-जाही को अलग कर आयात-निर्यात को बढ़ावा दिया जा सके। ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह से भारत में इस्पात एवं मशीन उद्योग को भारतीय रेलों से लाभ हुआ। भारत सरकार ने आधुनिक एवं कुशल डाकतार पद्धति स्थापित की यद्यपि टेलीफोन पद्धति  पिछड़ी ही रही।

 उपभोक्ता उद्योगों वाले कई छोटे-छोटे किंतु भारतीय स्वामित्व वाले औद्योगिक आधार जैसे कपास और पटसन, कपड़ा, चीनी, साबुन, कागज और माचिस का विकास 1947 से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था का एक और महत्वपूर्ण सकारात्मक पहलू था। लोहा और इस्पात, सीमेंट मूलभूत- रसायन, धातुविद्या और इंजीनियरी जैसे माध्यमिक पूंजीगत माल के उद्योगों ने भी 1947 से विकास करना आरंभ कर दिया था। यद्यपि बहुत निम्नस्तर पर। भारत के पास एक करोड़ वैज्ञानिक एवं तकनीकी जनशक्ति थी। यद्यपि तकनीकी शिक्षा के लिए सुविधाएं सर्वथा अपर्याप्त थीं। 1939 में 2217 विद्यार्थियों वाले केवल 7 इंजीनियरिंग कॉलेज थे इस पर भी उद्योग में प्रबंधात्मक और तकनीकी पदों पर गैर भारतीय कर्मचारियों को रखा जाता था।

 1914 के पश्चात् स्वतंत्र आर्थिक एवं वित्तीय आधार सहित शक्तिशाली देशी पूंजीवादी वर्ग का अभ्युदय हुआ। विदेशी पूंजी से मुक्त भारतीय पूंजीपति प्रमुख थे। कई अन्य औपनिवेशिक देशों की तरह वे विदेशी पूंजी और भारतीय बाजार के मध्य बिचौलिए या दलाल  विदेशी नियंत्रण के उद्यमों में कनिष्ठ साझेदार नहीं थे। वे विदेशी पूंजीपतियों से अधिक उद्यमी थे, परिणामस्वरूप ब्रिटिश तथा अन्य विदेशी निवेशों के मुकाबले में भारतीय पूंजी के अंतर्गत निवेश काफी तेजी से बढ़े।

1945 से दूसरे विश्व युद्ध के अंत तक बड़ी औद्योगिक इकाइयों का 60% भारतीय पूंजी के नियंत्रण में था। छोटे स्तर के औद्योगिक क्षेत्रों ने बड़े स्तर से अधिक राष्ट्रीय आय उत्पन्न की जो लगभग पूर्णतया भारतीय पूंजी पर आधारित थे।

      1947 तक भारतीय पूंजी के बैंकों और जीवन बीमा के क्षेत्र में उल्लेखनीय उन्नति हुई। समस्त जमा खातों का 64% संयुक्त पूंजी वाले बैंकों के पास था और जीवन बीमा से भारतीय स्वामित्व वाली कंपनियों के पास 75% पूंजी थी तथा आंतरिक व्यापार का बहुत बड़ा भाग और विदेशी व्यापार का कुछ भाग भी भारतीय हाथों में आ गया था।

       भारतीय अर्थव्यवस्था के सकारात्मक पहलुओं को विशाल ऐतिहासिक संदर्भ में देखना चाहिए। प्रथम, भारतीय उद्योग एवं पूंजी का विकास अभी भी स्थिर और काफी हद तक सीमित था। द्वितीय, यह मूलतः औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के लिए बनाए ढांचे के भीतर हुआ। भारत बिना औद्योगिक, क्रांति के औद्योगिक विकास की ओर उन्मुख हुआ। भारतीय अर्थव्यवस्था ने बागडोर नहीं संभाली थी। तृतीय,  जो भी विकास हुआ वह उपनिवेशवाद के कारण या उसकी मौजूदगी में औपनिवेशिक नीतियों के विरोध में हुआ। 

विश्व अर्थव्यवस्था में ब्रिटेन की गिरती हुई साख दो विश्व युद्धों और 1930 के दशक के  गहन दबाव ( ग्रेट डिप्रेशन) के संदर्भ में यह उपनिवेशवाद के विरुद्ध गहन आर्थिक एवं राजनीतिक संघर्ष के परिणामस्वरुप हुआ। चतुर्थ, उपनिवेशवाद से मुक्ति और इसके विध्वंस के बिना पूर्ण आर्थिक विकास या स्वच्छंद आर्थिक विकास की शुरुआत नहीं हो सकती थी। 

      लोगों की—  विशेषताया किसानों और शिल्पकारों की दशा भी औपनिवेशिक पिछड़ेपन का चरम परिणाम थी। स्पष्ट एवं नितांत गरीबी, भूख और भुखमरी सामान्यजन के हिस्से में आई थी। अधिकांश को वर्ष में कई महीने दो जून का भोजन या वर्ष के शेष महीनों में एक जून का भोजन भी नसीब नहीं होता था। 

       गरीबी की पराकाष्ठा, बड़े-बड़े अकालों की श्रंखला के रूप में हुई जिसके परिणामस्वरूप 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत के अनेक भागों में विनाश की ताँडव लीला हुई। ब्रिटिश शासन के आदि से अंत तक देश के किसी न किसी भाग में छोटे-मोटे अकाल पड़ते ही रहे और निरंतर अभाव की की स्थिति रही। 1943 के अंतिम काल में बंगाल में लगभग बीस लाख जानें गईं।

स्वास्थ्य सेवाओं पर  औपनिवेशीकरण का प्रभाव  

    भारतीय अर्थव्यवस्था की दरिद्रता और पिछड़ेपन के कई अन्य संकेत हैं, बीसवीं शताब्दी के आदि से अंत तक प्रति व्यक्ति आय स्थिर रही यद्यपि इसे अस्वीकार नहीं किया गया। 1941 से 50 के मध्य वार्षिक मृत्यु दर 35/ हजार व्यक्ति थी ,और शिशु मृत्यु दर 175 से 190 प्रति हजार जीवित पैदा हुए बच्चों पर थी। 1940 से 1951 के मध्य पैदा हुआ सामान्य व्यक्ति केवल 32 वर्ष की आयु की उम्मीद कर सकता था। महामारियों से जैसे चेचक, प्लेग,हैजा, पेचिश तथा  अन्य ज्वरों के कारण प्रतिवर्ष लाखों मौतें हुईं।

      स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति शोचनीय थी। 1943 में देश में कुल 10 मेडिकल कॉलेज थे जहां से 700 स्नातक प्रतिवर्ष निकलते थे और 27 मेडिकल स्कूल थे जहाँ 700 लाइसेंसधारी उत्तीर्ण होते थे। 1951 में मात्र 18000, स्नातक डाक्टर थे— जिनमें से अधिकांश की संख्या 1,915 थी जबकि 7,072 बिस्तरों वाली डिस्पेंसरियों की संख्या 6,589 थी। अधिकांश नगरों में आधुनिक सफाई व्यवस्था नहीं थी और जहां पर थी भी वहाँ  पर भी अक्सर खराब रहती थी। जिन क्षेत्रों में यूरोपीय संपन्न भारतीय रहते थे वहीं तक आधुनिक सफाई व्यवस्था समिति थी। प्रांतों में आधुनिक नगरों में बिजली भी नहीं थी और गांव के लिए तो बिजली की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

शिक्षा व्यवस्था पर औपनिवेशीकरण का प्रभाव

      19वीं शताब्दी के अंत तक यह स्पष्ट हो चुका था कि सांस्कृतिक एवं आर्थिक विकास के लिए शिक्षा महत्वपूर्ण घटक है। किंतु अधिकांश भारतीयों के लिए किसी प्रकार की शिक्षा की उपलब्धता नहीं थी। 1951 में लगभग 84% अशिक्षित और स्त्रियों की अशिक्षा की दर 92% प्रतिशत थी। देश में केवल 13,590 माध्यमिक स्कूल और  7,288 हाई स्कूल थे। उपर्युक्त औसतों के आधार पर बहुसंख्यक भारतीयों की स्थिति के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं होती। इनकी आय स्रोतों और अवसरों की घोर  असमानता के बारे में नहीं जाना जा सकता। संकीर्ण सामाजिक ढांचे और शिक्षा के अभाव के कारण जहां तक सामाजिक विकास का प्रश्न है विशाल मावीय संभावनाओं को उपेक्षित कर दिया गया था इसलिए निर्धन वर्ग से केवल कुछ ही मध्यमवर्ग या उच्च वर्ग तक पहुंच पाते थे।

      यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि जनसंख्या वृद्धि की ऊँची दर निर्धनता या भूखमरी का कारण नहीं थी, चूंकि 1871 से 1941 के बीच यह वृद्धि प्रतिवर्ष 0.6% थी।

      इसलिए प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी न होना , निकृष्ट जीवन स्तर, नगण्य औद्योगिक विकास, गतिहीन उत्पादकता का निम्नस्तर, अर्द्ध संमती कृषि द्वारा उपनिवेशवाद का आर्थिक प्रभाव उजगार हुआ।

न्याय व्यवस्था पर औपनिवेशीकरण का प्रभाव

         औपनिवेशिक राज्य का चरित्र विरोधाभासों से भरा था और इसे उदारवादी की संज्ञा दी जा सकती है। मूलतः यह सत्तावादी एवं तानाशाह था किंतु इसमें कुछ उदार तत्व भी थे। चूँकि यह नियम कानून और अपेक्षाकृत स्वतंत्र न्यायपालिका के अंतर्गत कार्य करता था। प्रशासन प्रायः न्यायालय द्वारा व्याख्यायित विधान के अंतर्गत चलता था इससे तानाशाही एवं स्वच्छंदतावादी प्रशासन पर अंशतः अंकुश लगा और एक सीमा तक नौकरशाही के स्वच्छंदतावादी रवैये से लोगों की स्वतंत्रता एवं अधिकारों की रक्षा हुई। कानून प्रायः दोषपूर्ण एवं दमनकारी थे। चूँकि ये भारतीय लोगों द्वारा लोकतांत्रिक पद्धति से नहीं बने थे।इसके द्वारा नागरिक सेवाओं एवं पुलिस को मनमानी शक्ति दी गई।

     न्यायिक एवं प्रशासनिक गतिविधियों में कोई शक्तिभेद नहीं था। नागरिक सेवाओं का वही सदस्य जिला कलेक्टर के रूप में  प्रशासक था और जिला मजिस्ट्रेट के रूप में न्याय बांट रहा था।

       औपनिवेशिक न्यायिक पद्धति कानून के सम्मुख मनुष्य की जाति, धर्म और सामाजिक स्थिति में भेदभाव किए बिना बराबरी की संकल्पना पर आधारित थी। यद्यपि इसमें त्रुटियां भी थीं। जब कभी किसी यूरोपीय नागरिक को न्याय के लिए लाने का प्रयत्न किया जाता था तो न्यायालय की कार्य-प्रणाली पूर्वाग्रहपूर्ण हो जाती थी। व्यवहार में गरीब एवं अमीर के मध्य न्यायिक असमानता पुनः उभर आती थी क्योंकि न्याय प्रणाली काफी महंगी थी।

        सामान्य समय के लिए औपनिवेशिक शासकों ने प्रेस की स्वतंत्रता, कुछ नागरिक स्वतंत्रताएँ, भाषण एवं संस्थागत एकजुटता की स्वतंत्रता एक सीमा तक उपलब्ध थी जिन पर जन संघर्षों के दौरान बलपूर्वक अंकुश लगाया जाता था। 1897 के पश्चात प्रेस एवं भाषण की स्वतंत्रा में सामान्य समय में भी हस्तक्षेप आक्रमण बढ़ते जा रहे थे। क्रूर एवं दमनकारी कानूनों के द्वारा ही नागरिक  स्वतंत्रताओं का ह्रास हुआ न कि कार्यपालक की स्वच्छंदतादी कार्य-प्रणाली से।

भारतीय शासन व्यवस्था पर औपनिवेशीकरण का प्रभाव

   सन 1858 के पश्चात औपनिवेशिक राज्य के विरोधाभास का एक अन्य पहलू यह भी था कि इसने निरंतर संवैधानिक एवं आर्थिक रियायतें दीं किंतु आदि से अंत तक राज्य की मूलभूत शक्ति अपने हाथ में रखी।

      ब्रिटिश राजनेताओं और प्रशासकों ने भारत में प्रतिनिधि शासन स्थापित करने के विचार का निरंतर बलपूर्वक विरोध किया और दलील दी कि भारत प्रजातंत्र के लिए उपयुक्त नहीं है और भारत पर तानाशाही तरीके से ही शासन करना चाहिए। उनकी सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक विरासत के कारण एक परोपकारी स्वच्छंदतावाद ही भारत के लिए उपयुक्त है। किंतु भारतीय दबाव के कारण इसे केंद्र एवं प्रांतों में विधान मंडल एवं चुनाव प्रणाली को लागू करना पड़ा।

इसलिए इसमें संयोजित करने की इच्छा भी प्रकट की जिससे राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर कर सके और राजनीतिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संवैधानिक ढांचे का इस्तेमाल कर सकें। विधान मंडलों के पास कोई सत्ता नहीं थी तब भी सारी की सारी सत्ता अंग्रेजों के पास थी। पार्टी विधान मंडलों की सहमति के बिना सरकार कोई भी कार्यवाही कर सकती थी और वास्तव में जब भी जो भी वह चाहती थी कर सकती थी। 

किंतु विधानमंडल तब सरकार के आधारभूत तानाशाही चरित्र और औपनिवेशिक, संवैधानिक सुधारों के खोखलेपन को उजागर कर सकता था। इसके अतिरिक्त मताधिकार या मत देने का दायरा सर्वथा संकीर्ण था। 1919 के पश्चात कुल 3% एवं 1935 के पश्चात 15% भारतीय मत दे सकते थे।

     विधानमंडल के कुछ भारतीयों को विभिन्न स्तरों पर चुनाव में भाग लेने और चुनी हुई सरकारों में काम करने का अनुभव दिया गया, राष्ट्रवादी ने औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने के लिए जन संघर्षों के साथ संवैधानिक दायरे का प्रयोग किया और राजनीतिक विचारधारात्मक अभियानों को तेज किया।

    भारतीय एकता और राष्ट्रीयता के विकास में उपनिवेशीकरण का योगदान

      भारतीय एकता संबंधी औपनिवेशिक प्रभाव भी विरोधाभासों से भरा था। औपनिवेशिक राज्य भारत के राजनीतिक एवं प्रशासनिक एकीकरण को पूर्व उपलब्धियों से भी उच्च स्तर पर ले गया। इसने मुगल शासन पर आधारित कानून एवं प्रशासन की एकरूप पद्धति को स्थापित किया। अंग्रेजो ने पूरे देश के लिए सार्वजनिक शैक्षिक ढांचे का भी विकास किया जिसने समय रहते देश के स्तर पर एक ऐसे बुद्धिजीवी वर्ग को तैयार किया जिसने समय के साथ समाज एवं राजतंत्र को देखने के सार्वजनिक नजरिए का विकास किया और राष्ट्रीय संदर्भ में सोचा। उपनिवेशवाद ने एकीकृत अर्थव्यवस्था के निर्माण और संचार के आधुनिक साधनों के साथ जोड़कर भारत को एक राष्ट्र बनाने के आधार तैयार करने में सहायता दी।

     भारत को एकीकृत करने के पश्चात अंग्रेजों ने विरोधी गतिविधियों के संकेत दिए। भारतीय जनता की एकता—- जिसे उनके अपने शासन ने प्रारंभ किया था से डर कर उन्होंने फूट डालो और राज करो की पारंपरिक साम्राज्यवादी नीति का प्रयोग एक वर्ग को दूसरे वर्ग के साथ लड़ाने के लिए किया। लोगों में विभाजन को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने भारतीय समाज के समस्त विभाजक एवं विभिन्न पहलुओं और राजतंत्र का प्रांत के विरुद्ध जाति का जाति के, वर्ग का वर्ग के हिंदू-मुसलमानों का एक-दूसरे के विरुद्ध और राजे-राजकुमारों एवं स्वामियों का राष्ट्रीय आंदोलन के विरूद्ध प्रयोग किया। वे अपने प्रयासों में न्यूनाधिक सफल भी हुए और अततः  जाते-जाते उन्होंने भारत को दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया।

नागरिक सेवाओं पर अपने औनिवेशिकरण का प्रभाव

अंग्रेजों ने भारत पर नागरिक सेवा (आई.सी.एस) के नेतृत्व वाली आधुनिक नौकरशाही के माध्यम से शासन किया जिसके सदस्यों को परीक्षा के माध्यम से चुना जाता था। नौकरशाही नियमों का पालन करती थी ईमानदार होने की बजाए वह दक्षक्ष एवं सर्वोपरि थी। भारतीय दबावों के अंतर्गत 1918 के बाद धीरे-धीरे विभिन्न सेवाओं का भारतीयकरण किया गया, 1947 तक (आई.सी.एस.) के लगभग48% सदस्य भारतीय थे। किंतु प्रभुत्व एवं नियंत्रण वाले स्थान अंत तक अंग्रेजों के हाथों में ही रहे। इसके अंतर्गत सेवारत भारतीयों ने भी ब्रिटिश शासन के एजेंट के रूप में कार्य किया।

अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्यों ने स्वतंत्रता, सत्यनिष्ठा, परिश्रम और राजनीतिक निर्देशों के अनुकरण की कुछ परंपराओं का पालन किया। अखिल भारतीय सेवाओं में भी प्रशासन एवं लोकाचार के एकीकरण के कुछ संकेत मिले। इसी समय नागरिक सेवाओं (सिविल सर्विस) के कर्मचारियों ने क्रमश: एक निश्चित सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण के संरक्षण के लिए दृढ़ जाति का निर्माण किया।

 नागरिक सेवा (आईसीएस) चंकि न्यूनाधिक बेईमानी से मुक्त थी इसलिए बेईमानी प्रशासन के निचले स्तरों पर फूली-फली। विशेषतया लोकनिर्माण और सिंचाई विभागों, रॉयल आर्मी सप्लाई वोरण्सा और पुलिस विभागों में जहां इसकी संभावना की। सरकारी नियमितताओं और नियंत्रण के कारण द्वितीय महायुद्ध के दौरान प्रशासन में बेईमानी और कालाबाजारी बड़े पैमाने  पर फैली और जब एक बार उत्पादक शुल्क और आयकर की दरों में परिवर्तन किया गया तो करों के भुगतान में भी टालमटोल हुआ। समानांतर कालेधन की अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी हुई।

 अंग्रेज अपने पीछे शक्तिशाली किंतु महंगी सशस्त्र सेनाएं छोड़कर गए जिन्होंने भारत में अंग्रेजी राज के एक महत्वपूर्ण स्तंभ का कार्य किया। अंग्रेजो ने सशस्त्र सेनाओं को जन-जीवन से अलग रखने का हर संभव प्रयत्न किया और सोचा कि शेष जनसंख्या, विशेषतया राष्ट्रीय आंदोलन, समाचारपत्र-पत्रिकाएं तथा अन्य प्रकाशन सैनिकों तथा ऑफिसरों तक न पहुंचने पाऍं। मैडल के दूसरी ओर सेना के गैर-राजनीतिक होने के कारण अधीनस्थ होने की परंपरा थी जैसी कि नागरिक सेवाओं के राजनीतिक प्रभुत्व के लिए थी। 

अंग्रेजों ने पूरे देश में उच्च शिक्षा के लिए पूरे देश में अंग्रेजी भाषा को लागू करने के लिए एक सार्वजनिक शिक्षा पद्धति का विकास किया। इस पद्धति ने समय के अनुरूप पूरे देश में बुद्धिजीवी पैदा किए जिसके पास समाज को देखने के लिए सार्वजनिक तौर तरीके थे जो उपनिवेशवाद पर आलोचनात्मक टिप्पणी को विकसित करने में सक्षम थे। उन्होंने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और उसके पश्चात ऐसा किया भी। किंतु अंग्रेजी पर आधारित शिक्षा के दो नितांत नकारात्मक परिणाम भी थे।

पहला यह कि इसने पढ़े-लिखे और जनसाधारण के बीच एक गहरी खाई उत्पन्न कर दी यद्यपि राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा कुछ हद तक इस खाई को पाटने की कोशिश की गई। चूँकि इसके नेता एवं सदस्य बुद्धिजीवी वर्ग से आए थे किंतु यह खाई स्वतंत्र भारत में भी बनी रही। दूसरे, अँग्रेजी पर बल देने के कारण भारतीय भाषाओं का संपूर्ण विकास रुक गया और जनसाधारण तक भी शिक्षा नहीं पहुंच पाई।

 औपनिवेशिक  शिक्षा पद्धति में भी कई त्रुटियां थी जो आज भी भारत के विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में फैली हैं।  इसने विषय-वस्तु को रटकर स्मरण करने को बढ़ावा दिया और प्राधिकारी के मत को प्रमाण माना। विद्यार्थी के विवेक, तर्क, विश्लेषणात्यक और आलोचना बुद्धि का विकास न हो सका। वे प्रायः दूसरों को दोहरा सकते थे किंतु अपने मत के निर्माण में कठिनाई अनुभव करते थे। 

    औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति में जनसाधरण की शिक्षा, वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्रों में उपेक्षित रह जाने की एक बड़ी त्रुटि थी। लड़कियों की शिक्षा में दिलचस्पी का पूर्णतया अभाव था। इसलिए 1951 में 100 में स्त्री साक्षर थी।

Conclusion

इस प्रकार औनिवेशीकरण ने भारत के प्रत्येक क्षेत्र पर प्रभाव डाला— वह चाहे सामाजिक क्षेत्र हो, धार्मिक क्षेत्र हो, आर्थिक क्षेत्र हो या फिर शैक्षिक क्षेत्र हो। जहां कुछ क्षेत्रों में इसके सकारात्मक परिणाम हुए वहीं कुछ क्षेत्रों में इसके अत्यधिक नकारात्मक परिणाम हुए। इतने भारतीय कुटीर उद्योग की कमर तोड़ दी और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को बाजारीकरण पर निर्भर बना दिया। अब तक जो भारतीय सिर्फ अपने ही उत्पादों को इस्तेमाल करते थे अब है विदेशी उत्पादों की तरफ टकटकी लगाए देखते रहे।अतः औपनिवेशीकरण ने भारत की आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तबाह कर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को स्थापित कर दिया। 


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